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स्याद्वादमं.
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अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्मके एकदेशक्षय और उपशमसे उत्पन्न होते हैं; इसकारण जब आत्माके केवलज्ञानकी प्रकटता होती है उसी समय नष्ट हो जाते है । क्योंकि ' क्षायोपशमिक ज्ञानोंके नष्ट होनेपर' ऐसा वचन है । और सब द्रव्य तथा पर्यायोंमें प्राप्त अर्थात् समस्त द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाला ( जाननेवाला ) जो केवल ज्ञान है; वह तो ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वथा क्षय (नाश ) होनेसे उत्पन्न होता है, इसकारण आत्माका निर्मलस्वरूप होनेसे मोक्ष अवस्थामें है ही है । और विषयोंसे उत्पन्न होनेवाला सुख तो उस मोक्ष अवस्था नही है । क्योंकि उस विषयोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण जो वेदनीय नामा कर्म है; उसका मोक्ष अवस्थामें अभाव है। और जो निरतिशय, अविनाशी तथा स्वतंत्र ( किसी दूसरेकी अपेक्षा न करनेवाला) और जिसका कभी अंत (पार) न आवे ऐसा सुख तो उस मोक्षअवस्थामें पूर्णरूपसे विद्यमान है । दुःखका कारण अधर्म (पाप ) है; उस अधर्मका मोक्ष अवस्थामें अभाव हो गया है; इसकारण दुःखका भी मोक्ष अवस्थामें नाश है ।
नन्वेवं सुखस्यापि धर्ममूलत्वाद्धर्मस्य चोच्छेदात्तदपि न युज्यते । “ पुण्यपापक्षयो मोक्षः " इत्यागमवचनात् । नैवम् । वैषयिकसुखस्यैव धर्ममूलत्वाद्भवतु तदुच्छेदो न पुनरनपेक्षस्यापि सुखस्योच्छेदः । इच्छाद्वेषयोः पुनर्मोहभेदत्वात्तस्य च समूलकापं कपितत्वादभावः । प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव । कृतकृत्यत्वात् । वीर्यान्तरायक्षयोपनतस्त्वस्त्येव प्रयत्नो दानादिलब्धिवत् । न च क्वचिदुपयुज्यते कृतार्थत्वात् । धर्माधर्मयोस्तु पुण्यपापापरपर्याययोरुच्छेदोऽस्त्येव । तदभावे मोक्षस्यैवायोगात् । संस्कारश्च मतिज्ञानविशेष एव । तस्य च मोहक्षयानन्तरमेव क्षीणत्वादभाव इति । तदेवं न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति युक्तिरिक्तेयमुक्तिः । इति काव्यार्थः ॥ ८ ॥
शंका --- जैसे अधर्ममूलक दुःखका अधर्मके नष्ट होनेसे नाश हो जाता है; उसीप्रकार सुखका भी मूल धर्म है और मुक्तात्माके धर्मका उच्छेद होगया है. अतः मुक्तात्माके सुख भी नही रहता है। क्योंकि; 'पुण्य तथा पापका जो नाश है; वही मोक्ष है' ऐसा आगमका वचन है । समाधान - यह कहना ठीक नही है । क्योंकि विषयजनित सुख ही धर्ममूलक है; इसकारण धर्मका नाश होनेसे मुक्तात्माके उस विषयजनितसुखका ही नाश होता है और उस धर्मकी अपेक्षा न करनेवाला जो स्वाभाविक सुख है; उसका मुक्तात्माके नाश नही होता है। तथा इच्छा और द्वेष ये दोनों मोहके भेद है; उस मोहको मुक्तजीवने मूलसहित उखाड़ ( नष्ट कर ) डाला अतः मोक्षअवस्थामें जीवके इच्छा तथा द्वेषका अभाव है । और क्रियाके व्यापारके गोचर जो प्रयत्न है;
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रा.जै. शा.