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संसारसुखमें जो रागका करना है वही बंधन रूप है । कारण कि; वह सांसारिकसुखमें रागका करना विषयादिकों में प्रवृत्तिका कारण है | अर्थात् सांसारिक सुखमें राग होनेसे जीवकी विषय आदिमें प्रवृत्ति होती है और मोक्षसुखमें जो अनुराग है; वह विषय आदिमें निवृत्तिका कारण है अर्थात् मोक्षसुखमें रागके होनेसे जीवके विषयोंसे रहितता होती है; इस कारण वह मोक्ष सुखमें रागका करना बंधन - रूप नहीं है । तथा उत्कृष्ट कोटि ( कक्षा व श्रेणी) में चढे हुए जीवके तो केवल इच्छारूप राग भी दूर हो जाता है अर्थात् ऊंचे दर्जेको प्राप्त हुए आत्माके तो उस मोक्षसुखमें भी इच्छा नहीं रहती है। क्योंकि; 'जो उत्तम मुनि होता है; वह मोक्ष और संसारमें अर्थात् सभीमें इच्छा रहित रहता है' ऐसा वचन है । यदि ऐसा न होवे तो दुःखकी रहिततारूप मोक्षको स्वीकार करनेवाले | तुम्हारे पक्ष में भी दुःखके विषयमें जो कषायरूप कालुष्य उत्पन्न होता है; उसका कौन निषेध कर सकता है । भावार्थ — जैसे सुखरूप मोक्ष मानने से मोक्षसुखमें राग होता है, उसी प्रकार दुःखरहित मोक्षके माननेसे दुःखमें द्वेष तथा मोक्षमें राग उत्पन्न होता है; और राग तथा द्वेष ये दोनोंही बंधनरूप है. इस कारण पराकाष्ठाको प्राप्त हुए योगीके इच्छाका अभाव हो जाता है, यह तुमको भी मानना पड़ेगा । इस पूर्वोक्त प्रकारसे संपूर्ण कर्मोंका नाश होनेसे जो परमसुख और परमज्ञानस्वरूप मोक्ष होता है; वही यथार्थ मोक्ष है और तुम्हारा माना हुआ जो बुद्धि आदि नव विशेषगुणोंका नाश है; उस स्वरूप मोक्ष नहीं है ।
अपि च भोस्तपस्विन् ! कथंचिदेषामुच्छेदोऽस्माकमप्यभिमत एवेति मा विरूपं मनः कृथाः । तथाहि । बुद्धिशब्देन ज्ञानमुच्यते । तच्च मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात्पञ्चधा । तत्राद्यं ज्ञानचतुष्टयं क्षायोपशमिकत्वा-| केवलज्ञानाविर्भावकाल एव प्रलीनम् । “ नहं मिउ छाउमच्छिए नाणे ” इत्यागमात् । केवलं तु सर्वद्रव्यपर्यायगतं | क्षायिकत्वेन निष्कलङ्कात्मस्वरूपत्वादस्त्येव मोक्षावस्थायाम् । सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति । तद्धेतोर्वेदनीयकर्मणोऽ भावात् । यत्तु निरतिशयमक्षयमनपेक्षमनन्तं च सुखं तद्वाढं विद्यते । दुःखस्य चाधर्ममूलत्वात्तदुच्छेदादुच्छेदः ।
और हे तपखिजनो ? किसी अपेक्षासे हमको भी इन बुद्धि आदि गुणोंका नाश अभीष्ट ही है अर्थात् हम भी कथंचित् बुद्धिआदिका नाश मानते ही हैं; इस कारण मनको विरूप ( उदास अथवा मलीन ) मत करो । सोही दिखाते है; बुद्धि शब्दसे | ज्ञान कहा जाता है अर्थात् हमारे मतमें बुद्धिसे ज्ञानका ग्रहण है और वह ज्ञान -मति १, श्रुत २, अवधि ३, मनः पर्यय ४ | और केवल ५; इन भेदोंसे पांच प्रकारका है। उनमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, और मन:पर्ययज्ञान ये चारों क्षायोपशमिक हैं