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________________ ॥१३५॥ एकसाथ ही परिणमन होला स्थाद्वादम., है। कोई भी वस्तु सर्वथा तो नष्ट होती ही नहीं है । और यदि परमाणुओंसे जो पर्याय तीन कालमें परिणमनेवाली हैं उनका एकसाथ ही परिणमन होजाना माना जाय तो यह दोष आता है कि संपूर्ण पर्याय एक समयमें ही उत्पन्न होनी चाहिये । और । इसीलिये दूसरे समयोमें परिणमनेकेलिये कोई पर्याय अवशिष्ट न रहनेसे उन परमाणुओंका निरन्वय नाश ही होजाना चाहिये। कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक समयमें किसी नकिसी पर्यायरूप होकर ही ठहरती है; जब पर्याय ही वाकी नहीं हैं तो ठहरै { किस अवस्थापर ? इसलिये एक समयके अनंतर नाश होना ही चाहिये परंतु होता नहीं है । इसीलिये यदि परमाणुओंको के - अनित्य मानाजाय तो भी क्या क्षण क्षणमें उनका नाश होता है अथवा कुछ समय ठहरकर ? यदि क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाले ( है तो क्या किसी हेतुके वश होकर अथवा हेतुके विना ही यदि हेतुके विना ही क्षण क्षणमें नष्ट होते है तो या तो सदा सतरूप ही मानने चाहिये अथवा असत्रूप ही। क्योंकि; अन्य निमित्तोंके विना जो निजका खभाव होता है वह सदा ही एकसाथ बनारहता है। एक समय जो सत्रूप है उनका दूसरे समयमें असत्रूप होजाना यह खभावभेद जो प्रत्येक समयमें बदलता रहता है वह किसी नकिसी भिन्न कारणसे ही बदल सकता है। इसीलिये यदि किसी कारणके वश होकर इनका नाश होना माना जाय । तो भी इनका कारण कोई स्थूल पदार्थ होसकता है अथवा वे ही परमाणु ? यदि स्थूल पदार्थ उस नाशका कारण माना जाय तो । स्थूल तो कोई बाह्य पदार्थ ही नहीं है; बाह्य पदार्थ जितना अंगीकार किया है उतना परमाणुरूप ही किया है। यदि परमाणु ही ___ माने जाय तो भी क्या वे सवरूप अथवा असत्रूप अथवा सत्असत् दोनोरूप होकर नाशरूप अपने कार्यको करसकते है ? यदि सत्ररूप होकर नाशरूप अपने कार्यको करसकते है ऐसा माना जाय तो भी क्या अपनी उत्पत्तिके समयमें ही नाश करते। हैं अथवा दूसरे क्षणमें अपनी उत्पत्तिके समयमें तो वे उपजनेमें ही व्यग्र रहते हैं इसलिये उस समय तो दूसरोका नाश कर नहीं सकते हैं । अर्थात् जो वस्तु जबतक सर्वथा पैदा ही नहीं होगई है किंतु उपज ही रही है तबतक वह किसी भी कार्यको क्या करसकती है ? कोई भी वस्तु खयं उत्पन्न होचुकनेके अनंतर ही किसी कार्यके करनेमें उद्यत होसकती है। ___ अथ "भूतियैषां क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यते” इति वचनाद्भवनमेव तेषामपरोत्पत्तौ कारणमिति चे 'वं तर्हि रूपाणवो रसाणूनाम् । ते च तेषामुपादानं स्युरुभयत्र भवनाऽविशेषात् । न च क्षणान्तरे; विनष्टत्वात् ।। अथाऽसन्तस्ते तदुत्पादकास्तर्हि एकं स्वसत्ताक्षणमपहाय सदा तदुत्पत्तिप्रसङ्गस्तदसत्त्वस्य सर्वदाऽविशेषात् । सद । यदि सरूप होकर क्या वे सत्रूप अथवा असदार्थ जितना अंगीकार कियाः यदि स्थूल पदार्थ उस न इनका नाश होना माना जाता के अब “भूतिषी कस्व वयं उत्पन्न होचुका ही नहीं होगई है तु रहते हैं इसलिये उस समत्तिके समयमें ही नाश करे । पादकास्तहिं एक स्व तेषामुपादान " इति वचना करने में उद्यत होसकता वह किसी भी कार्यकार नहीं ॥१३५॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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