________________
दिव्यवहारः प्राप्तः । अथ तद्ग्राहकं प्रमाणं स्वयमसांवृतं तर्हि क्षीणा प्रमात्रादिव्यवहाराऽवास्तवत्वप्रतिज्ञा तेनैव व्यभिचारात् । तदेवं पक्षद्वयेऽपि इतो व्याघ्र इतस्तटीति न्यायेन व्यक्त एव परमार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोधः । इति काव्यार्थः ।
इस प्रकार शून्यवादीका कथन प्रथम तो किसीप्रकार सिद्ध ही नही होता परंतु तो भी जो प्रमाण प्रमाता आदिकोंको झूठा कहा है वह क्या किसी प्रमाणके बलसे कहा है अथवा प्रमाणके विना ही ? यदि किसी प्रमाणके विना ही कहा है तो विना प्रमाण कहनेसे तो कुछ सिद्ध हो नही सकता । और यदि किसी प्रमाणके बलसे कहा है तो पदार्थको असत्यरूप कल्पनामात्र जाननेवाला प्रमाण क्या सांवृत प्रमाण है अथवा असांवृत ' जो यथार्थमें तो कुछ हो नहीं किंतु कल्पनामात्रसे माना गया हो वह सांवृत कहाजाता है । सो यदि उस प्रमाणको सांवृत माना हो तो उस असत्यार्थ प्रमाणसे सच्चे शून्यवादका निश्चय कैसे हो सकता है ? | इसलिये जब शून्यवादको जाननेवाला प्रमाण ही झूठा है तब हमारा प्रमाताआदि संपूर्ण व्यवहार मानना ही सच्चा प्रतीत होता है । और यदि शून्यवादको जाननेवाला प्रमाण सच्चा है तो सर्वथा शून्यवादका कहना मिथ्या हुआ। क्योंकि; एक प्रमाण तो तुमने अपने मुखसे ही स्वीकार किया । इस प्रकार न तो प्रमाणसे सिद्धि हो सकती है और न प्रमाणके विना । दोनो ही पक्ष माननेमें दोष है । 'एक तरफ भागते है तो व्याघ्र खड़ा है और दूसरी तरफ देखते है तो नदी बह रही है' इस न्यायके अनुसार दोनो ही पक्षके माननेमें शून्यवादीको अपना शून्यवाद छोड़कर हमारा प्रमाता आदिका व्यवहार सत्य मानना पड़ता है । क्योंकि; किसी प्रकार भी शून्यवाद सिद्ध नही होता । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ ।
अधुना क्षणिकवादिन
ऐहिकामुष्मिकव्यवहाराऽनुपपन्नार्थसमर्थनमविमृश्य
कोरितं दर्शयन्नाह ।
क्षणिकवादीने पदार्थके खरूपका जैसा उपदेश किया है उससे न तो इस लोककी और न परलोककी व्यवस्था बन सकती है | इसलिये वह उपदेश विचार किये विना ही किया है ऐसा दिखाते हुए अब कहते है । - कृतप्रणाशाऽकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् ।
उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन्नहो महासाहसिकः परस्ते ॥ १८ ॥
१ 'कारिताकारितं' इति खपुस्तकपाठ. ।