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स्वाद्वादमं•
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वेदोक्तमंत्रोंद्वारा विवाहादिकर्म करने चाहियें; उस विधिसे जो न करना है; वहीं इस विसंवाद ( व्यभिचार ) का कारण है । सो यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि संशय दूर नहीं होता है । भावार्थ - क्या उस मत्रसंस्कृतविवाहादि मौके फलमें क्रिया| वैगुण्यसे विसंवाद है, अथवा उन वेदोक्त मंत्रों में सामर्थ्य के न होनेसे विसंवाद है, यह निश्रय नहीं है । क्योंकि उन मंत्रोंकी फलके साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं होती है ।
अथ यथा युष्मन्मते “ आरोग्गं बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु " इत्यादीनां वाक्यानां लोकान्तर एव फलमिष्यते एवमस्मदभिमतवेदवाक्यानामपि नेह जन्मनि फलमिति किं न प्रतिपद्यते । अतश्च विवाहादौ नोपलम्भावकाश:, इति चेत् —— अहो वचनवैचित्री । यथा वर्तमानजन्मनि विवाहादिषु प्रयुक्तैर्मन्त्रसंस्कारैरागामिनि जन्मनि तत्फलमेवं द्वितीयादिजन्मान्तरेष्वपि विवाहादीनामेव प्रवृत्तिधर्माणां पुण्यहेतुत्वाङ्गीकारेऽनन्तभवानुसन्धानं प्रम ज्यते । एवं च न कदाचन संसारस्य परिसमाप्तिः । तथा च न कस्यचिदपवर्गप्राप्तिः । इति प्राप्तं भवदभिमतवेदस्य पर्यवसितसंसारवल्लरीमूलकन्दत्यम् । आरोग्यादिप्रार्थना तु अमत्यामृषाभाषापरिणामविशुद्धिकारणत्वान्न दोपाय । तत्र हि भावारोग्यादिकमेव विवक्षितम् । तच्च चातुर्गतिकसंसारलक्षणभावरोगपरिक्षयस्वरूपत्वादुत्तमफलम् । तद्विपया च प्रार्थना कथमित्र विवेकिनामनादरणीया । न च तज्जन्यपरिणामविशुद्धेस्तत्फलं न प्राप्यते । सर्ववादिना भावशुद्धेरपवर्गफलसम्पादनेऽविप्रतिपत्तेरिति ।
अब यदि ऐसा कहो कि, — जैसे आप ( जैनियों ) के मतं " रोगरहितपनेको, सम्पात्यके लाभको तथा समावि ( रागद्वेषरहितता ) रूप वरको ढेवो । " इत्यादि वाक्योंका परलोक ( परभव ) में ही फल माना गया है, इसी प्रकार हमारे माने हुए वेदके वाक्योंका फल भी परभवमें ही होता है; ऐसा आप क्यों नहीं स्वीकार करते हैं और जब आप वेटके का परभव फ मान लेंगे तो विवाहआदि उपालंभ ( ठपके ) को अवकाश ( स्थान ) नहीं मिलेगा अर्थात् विवाहादि अनिष्ट दूर न होनेमें आप दोष नही दे सकेंगे, तो तुम्हारे वचनोंकी विचित्रतासे हमको आश्चर्य होता है । क्योंकि जैसे तुम इस जन्ममें विवाह आदि कर्मोंमें प्रयोग कियेहुए मंत्रसंस्कारोंसे आगामी जन्ममें उन विवाहादिका फल होना मानते हो, उसी प्रकार यदि तुम दूसरे, तीसरे
१. असत्यामृपाभाषा व्यवहारभाषा ।
रा. जै. शा
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