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जन्म आदिमें भी विवाह आदि प्रवृत्ति धर्मोको ही पुण्यके कारण मान लोगे तो अनन्तजन्मोंके अनुसंधान (परंपरा) का प्रसग || होगा। और अनन्त जन्मोंके अनुसंधान होनेसे कभी भी संसारकी समाप्ति न होगी अर्थात् जीवोंके संसारपरिभ्रमण लगा ही ।
रहेगा । और जब ससारकी समाप्ति न होगी तब किसी जीवको मोक्षकी प्राप्ति भी न होगी । और इस पूर्वोक्त प्रकारसे तुम्हारे धू माने हुए वेदके अंतरहित ऐसी जो संसाररूपी बेल है, उसका मूलकंदपना प्राप्त हुआ। और हमारे मतमें जो आरोग्य आदिकी | IM प्रार्थना है; वह तो असत्यामृषाभाषासे अर्थात् न सच्ची ही और न झूठी ही ऐसी व्यवहारभापाद्वारा परिणामोंकी निर्मलताका कारण
है; इस लिये दोषके अर्थ नहीं है । भावार्थ-जैसे जिस घटमें घृत रक्खा हो उस घटको व्यवहारमें घृतघट कहते है, और यह A कहना एक अपेक्षासे असत्य है । क्योंकि घट मृत्तिकाका है न कि घृतका, तथा दूसरी अपेक्षासे सत्य भी है क्योंकि उस घटमें
घृतका संबंध है । इसीप्रकार आरोग्यआदिकी प्रार्थना भी श्रीजिनेन्द्र किसीको कुछ नहीं देते हैं; इसकारणसे तो असत्य है और श्रीजिनेन्द्रकी सेवासे आरोग्यादिके देनेवाले शुभ कर्मोंका बंध होता है अतः आरोग्यादिकी प्राप्तिमें श्रीजिनेन्द्र निमित्तकारणरूप है इस अपेक्षासे सत्य भी है । यही सत्यासत्यरूप भाषा व्यवहारभापा कहलाती है और इस व्यवहारभाषाद्वारा आरोग्यादिकी प्रार्थना करनेसे परिणाम निर्मल होते है अतः यह प्रार्थना निर्दोष है । क्योंकि उस आरोग्यादिकी प्रार्थनामें भावोंके आरोग्य आदि ही विवक्षित है । और वह भावारोग्य चार गतियोंके धारक संसाररूप जो भावरोग है, उसके नाशरूप खरूपवाला होनेसे उत्तम ||
फलका धारक है । और उस उत्तम फलवाले भावारोग्यकी प्राप्तिके विपयमें जो प्रार्थना है वह ज्ञानी जीवोंके अनादर करने योग्य || to कैसे होवे अर्थात् ज्ञानीपुरुष उस भावारोग्यकी प्रार्थनाका आदर ही करते है । क्योंकि वे भावारोग्यकी प्राप्तिके इच्छक हैं । और || 9 भावारोग्यादिकी प्रार्थनासे उत्पन्न हुई भावोंकी निर्मलतासे संसारकी रहितता वा मोक्षकी प्राप्तिरूप फल नहीं मिलता है; ऐसा न K कहना चाहिये । क्योंकि सभी वादी — भावोंकी शुद्धिसे मोक्ष फलकी प्राप्ति होती है ' इस सिद्धान्तमें सहमत है।
न च वेदनिवेदिता हिंसा न कुत्सिता । सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नैरैचिर्मार्गप्रपन्नैर्वेदान्तवादिभिश्च गर्हितत्वात् । तथा y च तत्त्वदर्शिनः पठन्ति-" देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा । नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् ।१।"वेदान्तिका अप्याहुः-" अन्धे तमसि मज्जामः पशुभिर्ये यजामहे । हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न १. संसारवृद्धिहेतोर्यज्ञादिरूपाममार्गाद्विपरीतो यमनियमादिरचिर्मार्गः॥