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स्थाद्वादमं.
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भविष्यति । १ । तथा ' अग्निर्मामेतस्माद्धिंसाकृतादेनसो मुञ्चतु छान्दसत्वान्मोचयतु इत्यर्थः ” इति । व्यासेना- राजै.शा. प्युक्तम्-ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाम्भसि । स्नात्वातिविमले तीर्थे पापपङ्कापहारिणि । १। ध्यानाग्नौ जीवकुंडस्थे दममारुतदीपिते । असत्कर्मसमितक्षेपैरग्निहोत्रं कुरुत्तमम् । २। कपायपशुभिर्दुष्टै-धर्मकामार्थनाशकैः । शममबहुतैर्यज्ञं विधेहि विहितं बुधैः। ३। प्राणिघातात्तु यो धर्ममीहते मूढमानसः। स वाञ्छति सुधावृष्टिं कृष्णा हिमुखकोटरात् । ४।" इत्यादि। न और वेदोक्तहिंसा निंदनीय नहीं है ऐसा भी न कहना चाहिये । क्योंकि सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके धारक पुरुषोंने तथा By अर्ची मार्गको खीकार करनेवाले वेदान्तवादियोने उस वेदोक्त हिंसाकी निन्दा की है । सो ही तत्त्वोंके देखने ( जानने ) वाले
कहते है कि,-"जो घृणा (ग्लानि ) रहित पुरुप देवताके भेट करनेरूप छलसे अथवा यज्ञ करनेके मिपसे जीवोको मारते है ५ वे घोर दुर्गति (सप्तम नरक आदि ) को गमन करते है। वेदान्तिक भी कहते है कि,-"जो हम पशुओंसे देवादिकोकी पूजा T करें तो अंध तम ( सप्तम नरक अथवा घोर अज्ञानान्धकार ) में डूब जावें । क्योंकि हिसा नामक धर्म न तो कभी हुआ और न 8 कभी होगा।१।" तथा "अमि देवता मुझको इस हिंसाद्वारा किये हुए पापसे मुक्त करो [यहांपर मुञ्चतु यह प्रयोग वेदका है,
अतः णिजन्तका अर्थ किया गया है] श्रीव्यासजीने भी कहा है कि,-"ज्ञानरूपी पालि (पाल) पर गिरा हुआ ब्रह्मचर्य और दयारूप है जल जिसमें ऐसे पापरूपी कर्दमको दूर करनेवाले अत्यंत निर्मल तीर्थमें स्नान करके । १। जीवरूपी कुंडमें दमरूपी पवनसे
दीपित ऐसी जो ध्यानरूपी अग्नि है, उसमें अशुभकर्मोरूपी काष्ठको गेरकर उत्तम अग्निहोत्रको करो।२। धर्म, काम और अर्थको छ नष्ट करनेवाले, शमरूपी मंत्रसे आहूतिको प्राप्त हुए ऐसे दुष्ट कषायरूपी पशुओंसे ज्ञानवानोंद्वारा किये हुए यज्ञको करो । ३ । जो ४ मूर्खचित्तका धारक मनुष्य जीवोंके मारनेसे धर्मकी प्राप्तिकी इच्छा करता है, वह काले सर्पके मुखरूपी कोटर ( वृक्षके छिद्र) से अमृतकी वर्षाको चाहता है भावार्थ-जीवोंके मारनेसे धर्म कभी भी नहीं हो सकता है।४।" इत्यादि ।
यच्च याज्ञिकानां लोकपूज्यत्वोपलम्भादित्युक्तं इदमप्यसारम् । अवुधा एव हि पूजयन्ति तान्न तु विविक्तवु- ॥८४॥ द्धयः। अवुधपूज्यता तु न प्रमाणम् । तस्याः सारमेयादिष्वप्युपलंभात् । यदप्यभिहितं देवतातिथिपितृप्रीतिसंपादकत्वाद्वेदविहिता हिंसा न दोषायेति तदपि विवितथम् । यतो देवानां संकल्पमात्रोपनताभिमताहारपुद्गलर