________________
-
सास्वादसुहितानां वैक्रियशरीरत्वाद् युष्मदावर्जितजुगुप्सितपशुमांसाद्याहुतिप्रगृहीताविच्छैव दुःसंभवा । औदामारिकशरीरिणामेव तदुपादानयोग्यत्वात् । प्रक्षेपाहारस्वीकारे च देवानां मन्त्रमयदेहत्वाभ्युपगमवाधः। न च तेषांला सामन्त्रमयदेहत्वं भवत्पक्षे न सिद्धम् । “ चतुर्थ्यन्तपदमेव देवता" इति जैमिनिवचनप्रामाण्यात् । तथा च मृगेन्द्रः।
" शब्देतरत्वे युगपद्भिन्नदेशेषु यष्ट्रषु । न सा प्रयाति सांनिध्यं मूर्तत्वादस्मदादिवत् ॥१॥" सेति देवता। का और जो तुमने यह कहा है कि; यज्ञके कर्ता पुरुषोंको लोकपूज्य देखते है; इसकारण वेदोक्त हिंसा निंदित नहीं है; सो यही
कथन भी असार (व्यर्थ) है; क्योंकि; मूर्ख मनुष्य ही उन यज्ञकर्ताओंकी पूजा करते हैं किंतु निर्मल बुद्धिके धारक उनकी पूजा नही | करते हैं । और मूखोंसे पूज्यपना प्रमाण करने योग्य नहीं है । क्योंकि वह मूखोंसे पूज्यपना श्वान ( कुत्ते ) आदिमें भी देखा l जाता है अर्थात् मूर्खजन श्वान वगैरह पशुओंकी भी पूजा किया करते हैं। और जो तुमने कहा है कि; देवता, अतिथि तथा पितृ जनोंकी प्रीतिको उत्पन्न करनेके कारण वेदोक्त हिंसा दोषके लिये नहीं है; सो यह कहना भी मिथ्या है। क्योंकि संकल्प मात्र ( मनमें भोजन करनेकी इच्छा ) करनेसे ही प्राप्त हुए जो मनोवांछित आहारके पुद्गल हैं; उनके रसका आस्वादन करनेसे तृप्त होनेवाले देवोंके वैक्रिय शरीर होनेके कारण तुम्हारी दी हुई जो ग्लानियुक्त पशुमांस आदिकी आहुति है; उसको ग्रहण करनेमें इच्छाका होना ही कठिन है। क्योंकि जो औदारिक शरीरके धारक जीव है; वे ही उस तुम्हारी दी हुई आहुतिको ग्रहण करनेकी योग्यता रखते हैं। और यदि तुम देवोंके दिये हुए आहारका खीकार करना-10 पना मानोगे तो ' देव मन्त्रमयशरीरके धारक है' इस तुम्हारी स्वीकारतामें दोष आवेगा । और देवोंके मन्त्रमय शरीरका होना तुम्हारे मतमें असिद्ध नहीं है। क्योंकि; 'देवताओंके अर्थ चतुर्थीविभक्तिसहित पदका ही प्रयोग करना चाहिये' ऐसा जैमिनिऋषि-|| का वचन प्रमाण करने योग्य है । सो ही मृगेन्द्र नामक एक तुम्हारा आचार्य कहता है कि-"यदि देवता शब्दमय ( मन्त्रमय ) शरीरसे भिन्न शरीरका धारक होवे तो जैसे हम तुम मूर्त शरीरके धारक होनेसे एक ही समयमें भिन्न २ स्थानोंमें उपस्थित ) ( विद्यमान ) नहीं हो सकते है; उसी प्रकार वह देव भी मूर्त देहको धारण करनेवाला होनेसे एक ही समयमें भिन्न २
१ दत्त-१२ यदि शब्देतरत्वं मन्त्रमयस्वरूपादपरस्वरूपत्वं स्याडेहस्वरूपं भवति तदा भिन्नदेशस्थायिपु याज्ञिकेपु कथं सानिध्यं कुरुते । मूर्त्तत्वात सर्वत्र सांनिध्यस्याऽप्रसङ्गः॥