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स्थाद्वादम.
स्थानोंमें पूजा करनेवाले पुरुषकी समीपताको प्राप्त न हो। (यहां 'सा' इस शब्दसे देवताका ग्रहण करना चाहिये.) भावार्थयदि देव मंत्रमय देहके धारक न होवें तो एक ही समयमें अनेक स्थानोमें पूजा करनेवालोके समीप न जा सकें, इसलिये देवन मन्त्रमय शरीरके धारक ही है। __ हयमानस्य च वस्तुनो भस्मीभावमात्रोपलम्भात्तदुपभोगजनिता देवानां प्रीतिः प्रलापमात्रम् । अपि च योऽयं त्रेताग्निः स त्रयस्त्रिंशत्कोटिदेवतानां मुखम् । “अग्निमुखा वै देवाः” इति श्रुतेः। ततश्चोत्तममध्यमाऽधमदेवानामेकेनैव मुखेन भुञ्जानानामन्योन्योच्छिष्टभुक्तिप्रसङ्गः । तथा च ते तुरुष्केभ्योऽप्यतिरिच्यन्ते । तेऽपि तावदेक
वामत्रे भुञ्जते । न पुनरेकेनैव वदनेन । किञ्च एकस्मिन् वपुपि वदनबाहुल्यं वचन श्रूयते । यत्पुनरनेकशरीरेष्वेके मुखमिति महदाश्चर्यम् । सर्वेषां च देवानामेकस्मिन्नेव मुखेऽङ्गीकृते यदा केनचिदेको देवः पूजादिनाऽऽराद्धोअन्यश्च निन्दादिना विराद्धस्ततश्चैकेनैव मुखेन युगपदनुग्रहनिग्रहवाक्योच्चारणसंकरः प्रसज्येत । अन्यच्च मुखं देहस्य नवमो भागस्तदपि येषां दाहात्मकं तेषामेकैकशः सकलदेहस्य दाहात्मकत्वं त्रिभुवनभस्मीकरणपर्यवसित-)
मेव संभाव्यत इत्यलमतिचर्चया। प और होम किये जातेहुए पदार्थका केवल भस्म होना ही देखा जाता है, इसकारण उस होम किये हुए पदार्थके उपभोगसे KG देवोंके प्रीति उत्पन्न होती है, यह तुम्हारा कहना प्रलाप ( बकवाद ) करने रूपही है। और “देव अग्निरूप मुखके ही धारक है है अर्थात् देवोंका अग्नि ही मुख है" इस श्रुतिके वचनसे जो यह त्रेताग्नि ( दक्षिणाग्नि, आहवनीयाग्नि तथा गाहपत्याग्नि नामक
तीनों अग्नियोंका समुदाय ) है, वह तेंतीस ३३ करोड़ देवोंका मुख है और जब त्रेतानि ही सब देवोंका मुख हुआ, तब एकही ' के मुखसे भोजन करते हुए उन उत्तम, मध्यम तथा जघन्य श्रेणीके सभी देवोंके परस्पर उच्छिष्ट (जूठन ) खानेका प्रसङ्ग हुआ
और ऐसा होनेपर वे देव तुरुप्कों ( मुसलमानों ) से भी अधिक नीच हुए। क्योंकि, वे तुरुप्क तो एक ही पात्रमें भोजन करते * है और एकही मुखसे भोजन नहीं करते है। और भी विशेप बक्तव्य यह है कि एक शरीरमें बहुतसे मुखोंका होना किसी २ में ॥८५॥ y] अर्थात् ब्रह्मा, खामी कार्तिकेय तथा रावण आदि व्यक्तिमें सुना जाता है और जो तुम अनेक शरीरोंमें एक मुखका
होना कहते हो, यह बड़ा आश्चर्य है । और यदि सब देवोंके एकही मुखका होना स्वीकार करोगे तो जब कोई पुरुष एक देवको