SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ याद्वादमं. ॥१६९॥ अनुभव भी झूठे ही होंगे ऐसा नही है । आपको ही झूठी भासती है तथा अन्य प्रतीति किसीको झूठी नही भासती है क्योंकि; जिस प्रकार शंखमें पीलेपनकी जो प्रतीति होती थी वह रोग दूर होनेपर अपने मनुष्योंको भी वह झूठी प्रतिभासती है उस प्रकार सभी पर्यायोंके उत्पत्ति नाशक । शखमें जो पीलापन किसीको दीखने लगता है वह कभी कभी; किंतु सदा ही नही दीखता है । इसलिये उस पीलापनको तो पूर्वाकारके विनाशरूप तथा उत्तर आकारके उत्पादरूप उत्पत्तिविनाशका आधार नहीं मानते है परंतु इस प्रकार जीवादि सभी वस्तुओं में हर्ष क्रोध उदासीनता या घट पटादिक पर्यायोंकी शृङ्खला झूठी नही कह सकते है । क्योंकि, किसी भी मनुष्यको उनके अनादि आधारभूत द्रव्यमें बाधा नहीं दीखती है । ननुत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते न वा ? यदि भिद्यन्ते कथमेकं वस्तु त्र्यात्मकम् ? न भिद्यन्ते चेत्तथापि कथमेकं त्रयात्मकम् ? तथा च "यद्युत्पादादयो भिन्नाः कथमेकं त्रयात्मकम् । अथोत्पादादयोऽभिन्नाः कथमेकं त्रयात्मकम्” । इति चेत्तदयुक्तं कथंचिद्भिन्नलक्षणत्वेन तेषां कथंचिद्भेदाऽभ्युपगमात् । तथा हि । उत्पादविनाशधौव्याणि स्याद्भिन्नानि भिन्नलक्षणत्वाद्रूपादिवदिति । न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम् । असत आत्मलाभः सतः सत्तावियोगो, द्रव्यरूपतयानुवर्त्तनं च खलूत्पादादीना परस्परमसंकीर्णानि लक्षणानि सकललोकसाक्षिकाण्येव । अब वादी पूछता है कि उत्पाद विनाश तथा स्थिरता परस्परमें भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि भिन्न है तो एक ही वस्तु उत्पाद व्यय धौव्य इन तीनों धर्मरूप किस प्रकार होसकती है ? क्योंकि, जो परस्पर भिन्न है वे एकस्वरूप नही होसकते है । और यदि ये तीनो धर्म अभिन्न है तो भी एक वस्तुके तीन स्वरूप किस प्रकार होसकते है ? क्योंकि; जो उत्पत्ति विनाश तथा स्थिरतापनेसे अभिन्न है वह एक समयमें या तो उत्पत्तिसहित ही होसकती है या विनाशसहित अथवा स्थिर ही रहसकती है । परस्पर विरुद्ध तीनो धर्मोंका एक वस्तुमें एक ही समयमें रहना असंभव है । यही कहा है “ यदि उत्पादादि धर्म परस्पर भिन्न हैं तो एक वस्तु तीनोंमय किस प्रकार होसकती है ! और यदि उत्पादादि धर्म परस्पर अभिन्न हैं तो भी एक वस्तु तीनों खरूपवाली किस प्रकार होसकती है ?" । यह शंका जो वादीनें की है वह ठीक नही है। क्योंकि, वे धर्म कथंचित् अर्थात् अपने अपने लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा ही भिन्न है, न कि सर्वथा । इसलिये उनमें परस्परका भेद कथंचित् ही माना गया है । कथचित् भेद सिद्ध करने के लिये अनुमान दिखाते है । उत्पत्ति, विनाश तथा स्थिरता ये तीनो धर्म कथंचित् भिन्न रा. जै.शा. ॥१६९॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy