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________________ रूप जो प्रदीप है; वह जिस क्षणमें पूर्व वन्हिज्वाला नष्ट होती है; उसी क्षणमें नष्ट हो जाता है । इस कारण उक्त अनुमानमें जो तुमने प्रदीपका दृष्टान्त दिया है; वह साधनविकल ( साधनसे शून्य ) है । और परमाणुमें जो पाकजरूप आदि है, उनसे यह हेतु व्यभिचारी भी है। क्योंकि; उन रूप रस आदिमें परमाणुरूप एक आश्रयमें होनेवाले अपर अपर रूप रस आदि संतान है; तो भी INउनका अत्यंत नाश नहीं होता है। भावार्थ-वैशेषिकमतमें पृथिवीके परमाणु पाक होता है, और जव घट रूप अवयवीका | अग्निके सयोगसे नाश हो जाता है तब खतन्त्र ( अवयवी रहित ) जो परमाणुरूप अवयव है; उनमें पाक होता है और फिर पके हुए परमाणुओंके संयोगसे अदृष्टके बलसे पुनः घट हो जाता है, ऐसी व्यवस्था है । अतः घटको अग्निमें धरनेसे जब उस घटका परमाणुपर्यन्त विभाग होता है, तब उन परमाणुओंमें जो पूर्व घटके रूप, रस आदि संतान है, वे बदलकर दूसरे रूप रस | आदि रूपसे उत्पन्न होते है इसकारण यद्यपि पूर्व तथा अपर रूप रस आदिका संतानत्व परमाणुरूप एक आश्रयमें रहता है; तौ || भी उन रूपादिक संतानोंका सर्वथा नाश नहीं है । इस कारणसे भी संतानत्वरूप हेतु व्यभिचारी है । और संतानत्व भी होगा, अत्यंत नाश भी न होगा, इस विपरीततर्कमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है । अर्थात् घट आदि पदार्थ संतान भी है और उनका सर्वथा नाश भी नही है, ऐसा यदि विपरीत तर्क किया जावे तो इस तर्कका बाधक कोई दूसरा प्रमाण नहीं है; इसकारण यह संतानत्व हेतु संदिग्ध है विपक्षसे व्यावृत्ति जिसकी ऐसा होनेके कारण अनेकान्तिक भी है । भावार्थ-वैशेषिकोंके प्रवृत्त | अनुमानमें सर्वथा उच्छेद्यत्वरूप साध्यका अभावखरूप जो अनुच्छेद्यत्व है, उस अनुच्छेद्यत्वके धारक घटादि सतान हो सकते है। इस कारण विपक्षरूप घटादिमें सर्वथा उच्छेद्यत्वकी रहिततामें संदेह होनेसे यह संतानत्व हेतु अनेकान्तिक भी है। WI नापि “ न हि वै सशरीरस्य ” इत्यादेरागमात् । स हि शुभाशुभादृष्टपरिपाकजन्ये सांसारिकप्रियाप्रिये परस्प-|| मरानुषक्ते अपेक्ष्य व्यवस्थितः । मुक्तिदशायां तु सकलादृष्टक्षयहेतुकमैकान्तिकमात्यन्तिकं च केवलं प्रियमेव । तत्कथं प्रतिषिध्यते । आगमस्य चायमर्थः । सशरीरस्य गतिचतुष्टयान्यतमस्थानवर्तिन आत्मनः प्रियाप्रिययोः परस्परानुषक्तयोः सुखदुःखयोरपहतिरभावो नास्तीति । अवश्यं हि तत्र सुखदुःखाभ्यां भाव्यम् । (परस्परानुषक्त त्वं च समासकरणादभ्यूह्यते)। अशरीरं मुक्तात्मानं (वा शब्दस्यैवकारार्थत्वात् ) अशरीरमेव वसन्तं सिद्धिक्षेमात्रमध्यासीनं प्रियाप्रिये परस्परानुषक्ते सुखदुःखे न स्पृशतः।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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