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________________ स्याद्वादमं. 1186011 | विधिनिषेधकी अपेक्षा प्रत्येक धर्मके भंग सात ही होंगे । इसलिये सब धर्मोकी सप्तभङ्गी चाहें अनंतो हों परंतु प्रत्येक धर्मके विधिनिषेधकी अपेक्षा सप्तभङ्गी ही कहना उचित है । जिस प्रकार सत् असत् धर्मोकी सप्तभंगी हो सकती है उसी प्रकार सामान्य विशेष इन दो धर्मों की भी सप्तभङ्गी होसकती है । जैसे— प्रत्येक वस्तु कथंचित् सामान्य है, कथंचित् विशेष है, कथंचित् सामान्यविशेष इन दोनोखरूप है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् सामान्य होकर भी अवक्तव्य है; कथंचित् विशेष होकर भी अवक्तव्य है तथा कथंचित् | सामान्य विशेषरूप होकर भी अवक्तव्य है । कदाचित् कहों कि इसमें विधि तथा निषेध नही होसकते है सो भी कहना ठीक नही है । क्योंकि, सामान्य धर्म तो सदा अस्तिरूप है और विशेष धर्म दूसरोका निषेधकर्ता होने से नातिरूप है। इसलिये जैसे अस्ति नास्ति धर्मोमें विधि निषेधकी अपेक्षा सात भग होसकते है उसी प्रकार सामान्य विशेष धर्मों में भी सात भंग होसकते हैं । अथवा इस प्रकार भी इनमें विधि निषेध कहे जा सकते हैं कि ये दोनो सामान्य विशेष शब्द एक दूसरे के विरुद्ध है इसलिये जब सामान्य धर्मकी तो प्रधानता करते है और विशेष धर्मकी अप्रधानता रखते है तब सामान्य तो विधिरूप होजाता है और विशेष धर्म नास्तिरूप होजाता है। और जब विशेषको मुख्य समझकर सामान्यको अमुख्य समझते है तब विशेष धर्म विधिरूप होजाता है और सामान्य निषेधरूप होजाता है। इसलिये स्यात्सामान्य है स्यात् विशेष है इत्यादि प्रकार से सात भंग होसकते है । इसी प्रकार और भी संपूर्ण धर्मो में सात सात भंग घट सकते है । इसीलिये ठीक कहा है कि "अनतो धर्मो में भी विचार करनेपर प्रत्येक के सात सात ही भंग होने से यदि अनंतो भी होंगी तो सप्तभंगी ही होंगी” । प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्य पर्यनुयोगानां सप्तानामेव संभवात् । तेषामपि सप्तत्वं; सप्तविधतज्जिज्ञासानियमात् । तस्या अपि सप्तविधत्वं; सप्तधैव तत्संदेहसमुत्पादात् । तस्यापि सप्तविधत्वनियमः स्वगोचर वस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोपपत्तेरिति । प्रत्येक पर्यायकी अपेक्षा भंग सात ही इसलिये होते है कि प्रत्येक पर्याय में जिनको कहसकते है ऐसे समाधान अथवा उत्तर सात ही होते है । उत्तर सात ही इसलिये होते है कि उन स्वरूपोंके जानने की इच्छा सात प्रकारसे ही होती है । जाननेकी इच्छा भी सात प्रकार ही इसलिये होती है कि, उस विषयके संदेह सात प्रकारके ही उठते है । और सदेह भी अधिक इसलिये नही उठते कि, प्रत्येक वस्तुमें संभवने योग्य धर्म सात ही है । रा०जै०या ॥१८०
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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