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ज्ञानत्वविशेषणे ग्रहीतुं शक्यम् । गृहीते हि घटत्वे घटग्रहणमिति ज्ञानान्तरात्तद्गृहणेन भाव्यम् । इत्यनवस्थानात्कुतः प्रकृतप्रत्ययः। तदेवं नात्मनो जडस्वरूपता संगच्छते । तदसङ्गतौ च चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यदिति वाङ्मात्रम् । ___ यदि कहो कि; जब आत्मा ज्ञाननामक विशेषण और आत्मानामक विशेष्य; इन दोनोंको ग्रहण कर चुकता है; तव ' मै ज्ञानवान हू' ऐसा प्रत्यय उत्पन्न होता है; तो यहां पर हम प्रश्न करते है कि; आत्माके उस ज्ञान तथा आत्माका ग्रहण किससे हुआ ? यदि उत्तरमें कहो कि; आत्मा खतः ( अपने आप ही से ) उन दोनोंका ग्रहण कर लेता है; तो यह कहना उचित नहीं | जा है। क्योंकि; तुमने आत्मा तथा ज्ञानको स्वसंवेदक ( अपने जाननेवाला ) नहीं माना है । भावार्थ-यदि आत्मा और ज्ञान ये | दोनों खसंविदित ( अपनेसे आप जाननेमें आते हुए ) होवें; तब तो आत्माके ज्ञान तथा आत्माका ग्रहण हो सकता है और अन्यप्रकारसे नहीं । दूसरे संतानके समान । अर्थात् जैसे घट पट आदि दूसरे संतान ( पदार्थ ) अखसंवेदक होनेसे ज्ञान तथा आत्माका ग्रहण नहीं कर सकते है। उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञान व आत्माके ग्रहण करने में असमर्थ है। अब कदाचित् ऐसा कहो कि; आत्मा पर ( दूसरे ) ज्ञानके द्वारा अपने ज्ञाननामक विशेषणको ग्रहण करता है तो वह दूसरा ज्ञानरूप विशेष्य भी अपने ज्ञानत्वविशेषणको ग्रहण किये विना उस आत्माके ज्ञानरूपविशेपणको ग्रहण करनेमें असमर्थ है। क्योंकि; घटत्वका ग्रहण होनेपर घटका | ग्रहण होता है भावार्थ-जैसे तुम्हारे मतमें घटत्वका ग्रहण हो चुकने पर घटका ग्रहण होता है; उसी प्रकार ज्ञानत्वका ग्रहण
होनेके पश्चात् ही ज्ञानका ग्रहण होना चाहिये । इस कारण दूसरे ज्ञानके ज्ञानत्वका ग्रहण तीसरे ज्ञानसे और तीसरे ज्ञानके ज्ञानIVत्वका ग्रहण चौथे ज्ञानसे एवं उत्तरोत्तर ज्ञानत्वका ग्रहण उत्तरोत्तर ज्ञानसे मानोगे तो कहीं भी स्थिति न होगी अर्थात् अनवस्था | सदोष प्राप्त होगा । अतः आत्माके 'मै ज्ञानवान हूं' यह प्रकृत प्रत्यय किससे होवे ? अर्थात् किसी प्रकारसे भी आत्मा 'मै ज्ञान
वान हूं' ऐसी प्रतीति नहीं कर सकता है । सो इस पूर्वोक्त प्रकारसे आत्माके जडरूपपना प्राप्त नहीं होता है अर्थात् आत्मा जड़ सिद्ध नही होता है । और आत्माके जडरूपताकी प्राप्ति नहीं होनेपर 'ज्ञान उपाधिजनित होनेके कारण आत्मासे भिन्न है' यह जो| तुम वैशेषिकोंका कहना है; सो वचनमात्र है अर्थात् व्यर्थ है।
१ जडस्वरूपताया अप्राप्ती.