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संबंधसे उत्पन्न होनेके कारणसे इंद्रियोंके अगोचर जो ईश्वरका सर्वज्ञत्व है, उसके ग्रहण करनेमें असमर्थ है । यदि कहो कि, हमने ।
परोक्षप्रमाणसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वको जाना है, तो सो भी नहीं कह सकते हो । क्योंकि, वह परोक्ष-अनुमान तथा शाब्द NI ( आगम ) भेदसे दो प्रकारका है, इसलिये अनुमानसे जाना वा आगमसे ? अनुमानप्रमाणसे तो ईश्वरके सर्वज्ञत्वको जान नही |||
सकते हो। क्योंकि, वह अनुमान जब पहले लिंग ( हेतु ) का ग्रहण और लिङ्ग तथा लिङ्गी इन दोनोंके संबंधका स्मरण हो जाता ा है, उसके पीछे उत्पन्न होता है । भावार्थ-' पर्वत अग्निवाला है, धूमवान् होनेसे ' इस स्थलों जैसे पहिले धूमरूप लिंगका ग्रहण | होता है, और फिर धूमरूप लिंगका अग्निरूप लिङ्गीके साथ संबंधका स्मरण होता है, तब अनुमान होता है । इसी प्रकार 'ईश्वर सर्वज्ञ है ' इस अनुमानमें किसी लिंगका ग्रहण और उस लिंगका सर्वज्ञत्वरूप लिंगीके साथ संबंधका स्मरण होना चाहिये ।
सो नहीं है । इसलिये अनुमान नहीं हो सकता है। और हम उस ईश्वरका सर्वज्ञत्वरूप जो अनुमेय है, उसमें कोई भी | ॐ अव्यभिचारी लिङ्ग नहीं देखते है । क्योंकि वह ईश्वर अत्यन्त दूर है, इस कारण उस ईश्वरके साथ संबंधित जो लिंग है, उसका सर्वज्ञत्वरूप लिंगीके साथ संबंधके ग्रहणका अभाव है।
अथ तस्य सर्वज्ञत्वं विना जगद्वैचित्र्यमनुपपद्यमानं सर्वज्ञत्वमर्थादापादयतीति चेत् । न । अविनाभावाऽभावात् । न हि जगद्वैचित्री तत्सार्वयं विनाऽन्यथा नोपपन्ना। द्विविधं हि जगत् स्थावरजङ्गमभेदात् । तत्र जङ्गमानां वैचित्र्यं स्वोपात्तशुभाऽशुभकर्मपरिपाकवशेनैव । स्थावराणां तु सचेतनानामियमेव गतिः । अचेतनानां तु तदुपभोगयोग्यतासाधनत्वेनाऽनादिकालसिद्धमेव वैचित्र्यमिति ।
यदि कहो कि यह जो जगतकी विचित्रता है सो उस ईश्वरकी सर्वज्ञताके विना उत्पन्न नहीं होती है, अर्थात् सर्वज्ञ ही ईश्वर N|| इस जगतकी विचित्रताको बना सकता है, इसकारण अर्थापत्तिसे ईश्वरके सर्वज्ञत्वकी सिद्धि होती है, सो भी नहीं । क्योंकि व्या
प्तिका अभाव है। कारण कि-ईश्वरके सर्वज्ञत्वके विना जगतकी विचित्रता नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं है अर्थात् जो सर्वज्ञ हो, | |वही जगतकी विचित्रताको उत्पन्न कर सकेगा, ऐसा नियम नहीं है । क्योंकि, स्थावर और जंगमरूप भेदोंसे जगत दो प्रकारका है, | उसमें जंगम ( त्रस ) जीवोंके तो अपने उपार्जन किये हुए जो शुभ तथा अशुभ कर्म है, उनके उदयके वशसे ही विचित्रता होती | all