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अथ तत्त्वव्यवस्थापकप्रमाणादिचतुष्टयव्यवहारापलापिनः शून्यवादिनः सौगतजातीयास्तत्कक्षीकृतपक्षसाधकस्य प्रमाणस्याङ्गीकाराऽनङ्गीकारलक्षणपक्षद्वयेऽपि तदभिमतार्थाऽसिद्धिप्रदर्शनपूर्वकमपहसन्नाह। al प्रमाण, प्रमिति, प्रमेय तथा प्रमाता ये चारों पदार्थसिद्धि करनेके कारण है इसलिये इनके द्वारा ही व्यवहार प्रवर्तता है । ५|| कछ भी न माननेवाले शून्यवादी अर्थात् एक प्रकारके बौद्ध इन चारोंका निषेध करते है। परंतु वे शून्यताका मंडन भी किसी ल अनुमानादि प्रमाण द्वारा ही करते होंगे। वह अनुमानादि प्रमाण यदि सच्चा है तो सर्वथा शून्यता सिद्ध होना असंभव है। और
यदि वह अनुमानादि प्रमाण भी सर्वथा झूठ है तो झूठे अनुमानादिसे कुछ सिद्ध हो नही सकता है इसलिये भी शन्यताकी सिटि होना असंभव है । इस प्रकार अब शून्यवादीकी हसी करते हुए आचार्य कहते है।
विना प्रमाणं परवन्न शून्यः स्वपक्षसिद्धेः पदमश्नुवीत ।
कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाणमहो सुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ॥ १७॥ मलार्थ-अन्य वादी तो प्रमाणादिको मानते हैं इसलिये अपने इष्ट सिद्धान्तोंको सिद्ध करसकते है परंतु यह शून्यवादी उन परवादियोंके समान अपने शून्यवादको सिद्ध नहीं करसकता है। क्योंकि, जिससे सिद्धि होसकती है ऐसे प्रमाणादिको यह झूठा मानता है। और यदि यह शून्यवादी प्रमाणका आश्रय लेकर अपने सिद्धांतको साधै तो इसका शून्यतामय सिद्धान्त कोप करने लगै। क्योंकि, प्रमाणका आश्रय लेनेसे प्रमाण पदार्थ सिद्ध होजाता है इसलिये शून्यता नहीं रहसकती है। हे भगवन् ! आपके मतके साथ ईर्षा रखकर अपने नये नये मतोंका निरूपण करनेवालोने क्या अच्छा कहा है !!! अर्थात् ऐसा निरूपण किया। है कि जिसका सिद्ध होना ही कठिन है। __व्याख्या-शून्यः शून्यवादी प्रमाणं प्रत्यक्षादिकं विना अन्तरेण खपक्षसिद्धे स्वाभ्युपगतशून्यवादनिष्पत्तेः पदं प्रतिष्ठां नाचवीत न प्राप्नुयात् । किंवत् ? परवत् इतरप्रामाणिकवत् । वैधयेणायं दृष्टान्तः । यथा इतरे प्रामाणिकाः प्रमाणेन साधकतमेन स्वपक्षसिद्धिमनुवते एवं नायम् अस्य मते प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारस्याऽपारमार्थिकत्वात् “सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिभावेन न वहिः सद