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खाद्वादम.
कथंचित् अस्तिरूप है और कथंचित् नास्तिखरूप है । भावार्थ- इस चतुर्थ भेदके दो पक्षोसे यह दिखाया है कि एक ही वस्तु राजै.शा.
कथंचित् विद्यमानरूप तथा कथंचित् अभावरूप है। ॥१८॥
| हे विपश्चितां नाथ संख्यावतां मुख्य! इयमनन्तरोक्ता निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्भारपरम्परा तवेति प्रकरणात्सामकाद्वा गम्यते । तत्त्वं यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदस्तदेव जरामरणापहारित्वाद्विवुधोपभोग्यत्वान्मिथ्यात्वविपोमिनिराकरिष्णुत्वादान्तराहादकारित्वाच्च पीयूषं तत्त्वसुधा । नितरामनन्यसामान्यतया पीता आस्वादिता या तत्त्वसुधा तस्या उद्गता प्रादुर्भूता तत्कारणिका उद्गारपरम्परा उद्गारश्रेणिरिवेत्यर्थः। यथा हि कश्चिदाकण्ठं पीयूपरसमापीय तदनुविधायिनीमुद्गारपरम्परां मुञ्चति तथा भगवानपि जरामरणापहारितत्त्वामृतं स्वैरमास्वाद्य तद्रसानुविधायिनी प्रस्तुताऽनेकान्तवादभेदचतुष्टयीलक्षणामुद्गारपरम्परां देशनामुखेनोद्गीर्णवानित्याशयः। ।
हे विद्वानोके नाथ! अर्थात् प्रख्यात पण्डितोके मुखिया ! यह अभी कही जो स्यान्नित्यानित्यादिरूप व्याख्या है वह ऐसी भास-|| जाती है मानों आपने जो तत्वरूपी सुधाका पान किया है उससे उठी हुई उद्गारोकी परंपरा है। प्रकरणवश अथवा आपके संबंधकास
वर्णन होनेसे हम जानते है कि वह उद्गारपरंपरा आपकी ही है। जिस प्रकार पदार्थ है उनका उसी प्रकार निश्चय करनेको तत्व कहते हैं । जरामरणका नाश करनेवाला होनेसे, विवुधोका ( विद्वान् तथा पण्डितोका ) उपभोग्य होनेसे, मिथ्यात्वरूपी विषको || निर्विष करनेवाला होनेसे तथा हृदयको आल्हादकारी होनेसे यह तत्वज्ञान ही अमृत है। भावार्थ-जिसके पीनेसे बुढापा न हो । तथा मरण न हो उसीको सुधा कहते हैं । तथा विबुध नाम विद्वानोंका तथा देवोंका है सो जिस प्रकार सुधाको विबुध पीते हैं अर्थात् देवता पीते हैं उसी प्रकार इस तत्वरूपी सुधाको भी विवुध पीते हैं अर्थात् विद्वान् पीते है। जिस तत्वसुधाको दूसरे नहीं पीसके हैं ऐसी तत्वसुधाको जो आपने पीया है उसमेंसे उत्पन्न हुए उद्गारोंकी यह परंपरा समझनी चाहिये जो स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि वचन निकले है । सारांश यह है कि जिस प्रकार कोई प्राणी गलेतक अमृत पीकर पीछे वारंवार डकार लेता है उसी
Mal॥१८८॥ प्रकार भगवान्ने भी खाधीन होकर जरामरणका नाशक तत्वरूपी अमृत पीकर उसके अनंतर उपदेशके वहाने होनेवाली अनेकांतके अंशरूप स्यादस्ति स्यान्नास्ति, स्यान्नित्यं स्यादनित्यम् , स्याद्वक्तव्यं खादवक्तव्यम् , स्यात्समानं स्यादसमानम् ऐसे चारभेदरूप यह उद्गारोंकी परंपरा निकाली है।