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प्रमाणवाक्योंके समान नयवाक्य भी अपने अपने विषयों में विधिनिषेधके कर्ता संभव होनेसे सप्त भंगरूप होसकते है इसलिये जिनको इस विषयमें अधिक जानना हो उनको इन नयोंके नाम, नामके अनुसार सार्थक भिन्न भिन्न लक्षण, शंका, समाधान आदि विषयोंका विचार भाष्यमहोदधि, गन्धहस्ति टीका, न्यायावतारादि ग्रंथोद्वारा जानलेना चाहिये । जो सच्चे अर्थका निर्णय करनेवाला हो तथा संपूर्ण नयोंके समुदायरूप अर्थको कहता हो उसको प्रमाण कहते है । क्योंकि; स्यात्शव्द लगाकर उच्चारण करनेसे नयवाक्योंका ही प्रमाण नाम होजाता है । यही तेरहवें तीर्थकर श्रीविमलनाथ की स्तुति करते हुए श्रीसमन्तभद्रखामीने कहा है कि "जिस प्रकार रसायनके योगसे लोह इच्छित फल देने लगता है उसीप्रकार 'स्यात्' शब्द लगानेसे ये आपके कहे हुए नय ही अभिमत फलके दाता होजाते है इसलिये हितेच्छु जन आपको नमस्कार करते है”।
तच्च द्विविधं प्रत्यक्षं परोक्षं च । तत्र प्रत्यक्षं द्विधा; सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं च । सांव्यवहारिक द्विविधमिटन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तभेदात् । तद्वितयमवग्रहेहावायधारणाभेदादेकैकशश्चतुर्विकल्पम् । अवग्रहादीनां स्वरूपं ।
सुप्रतीतत्वान्न प्रतन्यते । पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम् । तद्विविधं; क्षायोपशमिकं क्षायिकं च । आद्यमवधिमनःपर्यायभेदाद् द्विधा । क्षायिकं तु केवलज्ञानमिति । परोक्षं च स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहाऽनुमानागमभेदात्पञ्चप्रकारम् ।
ऐसा जो प्रमाण है उसके दो प्रकार है। प्रत्यक्ष तथा परोक्ष। फिर प्रत्यक्षके भी दो भेद है एक सांव्यवहारिक दूसरा पारमार्थिक ।। एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष तो ऐसा है जिसमें इंद्रियोंकी सहायता लेनी पड़ती है और दूसरा ऐसा सांव्यहारिक है जिसमें केवल मनकीमी सहायता लेनी पड़ती है । उस सपूर्ण सांव्यहारिक प्रत्यक्षके चार चार भेद होते हैं; अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । भावार्थ-ये चारो भेद प्रत्येक सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें उत्पन्न होसकते है । एक ही विषयके ज्ञानमें उत्तरोत्तर जैसी जैसी अधिक दृढता होती है तैसे तैसे ही उस ज्ञानके ये उत्तरोत्तर नाम रक्खे गये है। इनका स्वरूप सुगम है इसलिये यहां नहीं दिखाते हैं । जो परमार्थिक प्रत्यक्ष कहा है उसकी उत्पत्ति कुछ इन्द्रियादिकी अपेक्षा लेकर नही होती किंतु सहायरहित केवल साक्षात् आत्मासे ही होती है। इस पारमार्थिकके भी दो भेद हैं; एक क्षायोपशमिक पारमार्थिक दूसरा क्षायिक पारमार्थिक । अवधि तथा