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स्वाद्वादमं. ॥२०५॥
लेकर प्रवृत्त होते हैं इसलिये अर्थनय कहाते हैं और बाकीके तीन नय मुख्यतासे शब्दका आश्रय लेकर ही प्रवर्तते है इसलिये वे शब्दनय कहाते हैं । इन सातो नयोंमेंसे जो पूर्व पूर्वके है वे उत्तरोंकी अपेक्षा विपयका ग्रहण अधिक अधिक करते है और उनमें जो उत्तरके है वे पूर्व पूर्व नयकी अपेक्षा अल्प विषयवाले है ।
सन्मात्र गोचरात्संग्रहान्नैगमो भावाभावभूमिकत्वाद् भूमविषयः । सद्विशेषप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदर्शकत्वाद्बहुविषयः । वर्तमानविषयादृजुसूत्राद्व्यवहारस्त्रि कालविषयावलम्बित्वादनल्पार्थः । कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वान्महार्थः । प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतः समभिरूढाच्छन्द स्तद्विपर्ययानुयायित्वात्मभूतविषयः । प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थं प्रतिजानानादेवंभूतात्समभिरूढस्तदन्यथार्थस्थापकत्वान्महागोचरः ।
संग्रह केवल सत्धर्मका ही ग्रहण करता है और नैगम नय सत् असत् दोनों धर्मोंका ग्रहण करता है इसलिये संग्रहकी अपेक्षा नैगमका विषय बहुत है । सत्ता धर्मके किसी विशेष अंशका ग्रहण करनेवाले व्यवहारकी अपेक्षा सग्रह नय संपूर्ण सत्ताविशिष्टका प्रकाशक होनेसे अधिक विषयवाला है । ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान कालवर्ती पर्यायको ही प्रकाशता है इसलिये तीनो कालवत वस्तुको प्रकाशनेवाला व्यवहार नय इस नयसे अधिक विषयवाला है । लिङ्ग सख्या कालादिके भेदसे वर्तमान कालवर्ती पर्यायोंमें भी शब्द नय भेद दिखाता है इसलिये इसकी अपेक्षा वर्तमान पर्यायमें अभेद रखनेवाला ऋजुसूत्र नय महाविषयवाला है । शब्द नय पर्यायवाची शब्दों में अभेदभाव दिखाता है तथा समभिरूढ नय पर्यायवाची शब्दोंमें परस्पर भेद प्रकाशता है इसलिये समभिरूढ नयकी अपेक्षा शब्द नयका विषय बहुत है । समभिरूढ नय कुछ क्रियाओं का परिवर्तन होनेसे अर्थ में भेद नही मानता है परंतु एवंभूत क्रियाओंके भेदसे एक ही वस्तुको भिन्न भिन्न मानता है इसलिये एवंभूतकी अपेक्षा समभिरूढका विषय बड़ा है ।
नयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गीमनुव्रजतीति विशेषार्थिना नयानां नामान्वर्थविशेषलक्षणाक्षेपपरिहारादिचर्चस्तु भाष्यमहोदधिगन्धहस्तिटीकान्यायावतारादिग्रन्थेभ्यो निरीक्षणीयः । प्रमाणं तु सम्यगर्थनिर्णयलक्षणं सर्वनयात्मकं स्याच्छन्दलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेशभाक्त्वात् । तथा च श्रीविमलनाथस्तवे श्री समन्तभद्रः “नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यत स्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः” इति ।
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रा. जै.शा.
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