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| पुरन्दर इत्युच्यते । क्रियाऽनाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभासः । यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं । वस्तु नैव घटशब्दवाच्यं घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूत क्रियाशून्यत्वात्पढवदित्यादिः ।
पर्यायवाची शब्दों में भी शब्दसिद्धिविषयक भेद है इसलिये उनके वाच्य अर्थोंको जुदा मनानेवाला समभिरूढ नय है । जैसे परम ऐश्वर्यकी अपेक्षा इन्द्र कहना उचित है, शक्तिकी अपेक्षा शक्र कहना उचित है, पुरोंको विदीर्ण करनेवालेकी अपेक्षा पुरंदर | कहना ठीक है । इत्यादि और भी जो पर्यायवाची शब्द होते हैं वे सब शब्दभेदके कारण कुछ न कुछ भेद ही दिखाते हैं पर्यायवाची शब्दोंको सर्वथा ही भिन्न भिन्न अर्थ कहनेवाला मानना समभिरूढाभास है । जैसे हस्ती घोड़ा हरिण आदिक शब्द | भिन्न भिन्न होनेसे जिस प्रकार अपने अर्थको भी भिन्न भिन्न दिखाते हैं उसीप्रकार इन्द्र शक्र पुरंदरादिक शब्द भी भिन्न भिन्न होनेसे अर्थको सर्वथा जुदा ही दिखाते है । किसी पदार्थमें जब किसी शब्दके वाच्यरूप कार्यकारी क्रिया होरही हो तभी उस पदार्थको जो उस शब्द के अर्थरूप कहना सो एवंभूत है । जैसे जिस समय परम ऐश्वर्यका अनुभव कररहा हो उसी समय इन्द्रको | इन्द्र कहना तथा शक्तिरूप क्रियाका जिस समय अनुभव कररहा हो तब उसी इन्द्रको शक्र कहना एवं जब पुरोंको विदार रहाहो तब उसी इन्द्रको पुरंदर कहना उचित है । भावार्थ - जब पदार्थ जिस क्रियारूप परिणत न होरहा हो उस समय यद्यपि यह नय | उस पदार्थको उस क्रियारूप कहता नही है परंतु उस क्रियाका उस पदार्थमेंसे निषेध भी नही करदेता है किंतु उस विषयसे उस | समय उदासीन रहता है । और जो एवंभूत नयाभास है वह जिस क्रियारूप पदार्थ परिणत होता है उसको उस क्रियावाचक शब्दके अतिरिक्त अन्य शब्दोंका वाच्यरूप होनेसे रोकता है । जैसे जिस समय घड़ा अपने योग्य क्रियामें लगाहुआ न हो उस समय उसको घड़ा कभी नहीं कहना चाहिये । क्योंकि, उस समय उसमें जिस क्रियाके द्वारा वह घड़ा कहाता है वह क्रिया है ही नही । यदि अपनी क्रियासे शून्य वस्तु भी उस शब्दका वाच्य अर्थ होसकती हो तो वस्त्रमें भी घड़ा शब्दका प्रयोग क्यों नहीं होता ! ।
एतेषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः । शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनयाः पूर्वः पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः परः परस्तु परिमितविषयः ।
इन सातो नयोंमेंसे आदिके जो चार नय है वे तो शब्दके आश्रयकी मुख्यता न रखकर केवल अर्थका आश्रय मुख्यतासे