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________________ स्याद्वादमः ॥२०६॥ मनःपर्याय ये दो तो क्षायोपशमिक पारमार्थिक हैं तथा केवलज्ञान क्षायिक पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । परोक्ष प्रमाण पांच प्रकारका राजै.शा. | है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ऊह (तर्क), अनुमान तथा आगमज्ञान । । तत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविपयं तदित्याकारं वेदनं स्मृतिः। तत्तीर्थकरविम्वमिति यथा । अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय एवायं गोपिण्डो, गोसदृशो गवयः, स एवायं जिनदत्त इत्यादिः। किसी समय किसी पदार्थका अनुभव करनेके बाद जो सस्कार होजाता है उसका उद्भव होनेसे उसी अनुभव किये हुए पदार्थका 'वह' ऐसा याद आना सो स्मृति अथवा स्मरण है । जैसे वह तीर्थकरका प्रतिबिम्ब । वर्तमान समयमें किसी वस्तुको प्रत्यक्ष देखनेपर तथा पहिले देखे हुए किसी सदृश या विलक्षण आदि वस्तुके याद आनेपर वर्तमान देखे हुए तथा स्मरण किये हुए पदार्थों में जो जोड़रूप ज्ञान होता है उसको प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे पूर्वकासा ही यह गोपिंड है, तथा गौके समान ही यह गवय है। एव यह वही जिनदत्त है । अर्थात्-'वह' ऐसा तो सरणांश है तथा 'यह ऐसा वर्तमानाश प्रत्यक्ष है । इन दोंनो ज्ञानोंके ay हो जानेपर पीछेसे एक ज्ञान ऐसा होता है जिसके द्वारा पूर्वके देखे हुए पदार्थसे वर्तमानके पदार्थमें या तो समानता दीखती है । Ka या भेद प्रतीत होता है अथवा एकताकी प्रतीति होती है । जैसे अमुक वस्तु पूर्व देखे हुएसे भिन्न है अथवा वैसा ही है या वही है इत्यादि अनेक प्रकारसे प्रतीति होती है । सादृश्य दिखानेवाले प्रत्यभिज्ञानमें जिस सादृश्यका ज्ञान होता है कि यह वैसा ही है, वह सादृश्य धर्म दो प्रकारका है, एक तिर्यक् सामान्य तथा दूसरा ऊर्द्धतासामान्य । वर्तमान कालवर्ती एक जातिके पदार्थों में * रहनेवाली समानताको तिर्यक् सामान्य कहते है । जैसे यह गौ इस गौके समान है । एक ही पदार्थके क्रमवर्ती सपूर्ण पर्यायोमें रहनेवाली समानताको ऊर्द्धतासामान्य कहते है । जैसे एक ही पुद्गल अनेक पर्यायोंमें क्रमसे परिवर्तन करता है सो उन संपूर्ण के पर्यायोमें परस्पर उस एक पुद्गलकी अपेक्षा समानता है। ___ उपलम्भाऽनुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालघनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं * संवेदनमूहस्तर्काऽपरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिद्धूमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवतीति, तस्मिन्नसत्यसौ न भवत्ये ॥२०६॥ धू वेति वा । अनुमानं द्विधा स्वार्थ परार्थ च । तत्राऽन्यथाऽनुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसंवन्धस्मरणकारणकं साध्य
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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