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याद्वादसं.
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रा.जै. शा जाति और निग्रहस्थानोंका तत्त्वरूपता ( पदार्थपने ) से उपदेश देतेहुए गोतमऋषीके वैराग्यका वर्णन करना अर्थात् छल आदिके उपदेष्टा गोतमको कारुणिक कहना मानों अंधकारको प्रकाशस्वरूप कहने के समान है; अतः कैसे उपहासके योग्य न हो । भावार्थ- जैसे अंधकारको प्रकाशरूप कहता हुआ पुरुष हास्यका पात्र होता है; उसीप्रकार छल आदिके उपदेष्टा गोतमको कारुणिक कहते हुए नैयायिक भी उपहासके पात्र है । इस प्रकार काव्यका अर्थ है ॥ १० ॥
अधुना मीमांसर्कभेदाभिमतं वेदविहितहिंसाया धर्महेतुत्वमुपपत्तिंपुरस्सरं निराकुर्वन्नाह । -
अब एक प्रकारके मीमासक अर्थात् पूर्वमीमांसक और उत्तरमीमांसक ( वेदान्ती ) इन दो प्रकारके मीमांसकोमेंसे पूर्वमीमांसक जो है, वे वेदमें कही हुई हिंसाको जो धर्मकी कारणभूता मानते है; उसका युक्तिपूर्वक खंडन करते हुए आचार्य इस अग्रिम काव्यका कथन करते है
न धर्महेतुर्विहितापि हिंसा नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च ।
स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि स्फुरितं परेषाम् ॥ ११ ॥
सूत्रभावार्थ:- वेद में कही हुई भी हिंसा धर्मकी कारण नहीं है । और यदि पूर्वमीमांसक कहैं कि, वेदोक्त हिंसाकी विधि अपवादमार्ग से है; इसकारण दोषके लिये नहीं है; सो उचित नहीं है । | क्योंकि, उत्सर्गवाक्य जो है; वह दूसरे कार्यके लिये प्रयुक्त किये हुए वाक्यसे अपवादका विषय नहीं होता है अर्थात् शास्त्रमें जिस प्रयोजनको अवलम्बनकरके उत्सर्गवाक्य वर्त्तता है; उसी प्रयोज - | नको ग्रहणकरके अपवादवाक्य भी वर्त्तता है । इस कारण उन मीमांसकोंकी चेष्टा अपने पुत्रको मार | कर राजा बननेवाले पुरुषकी चेष्टाके समान है । भावार्थ — जैसे कोई अपने पुत्रको मारकर राजा
१. मीमांसकाद्विधा - पूर्वमीमांसावादिनः, उत्तरमीमांसावादिनश्च । तेषु पूर्वमीमांसावादिनामभिमतम् । २. युक्तिपूर्वकम् ।
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