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________________ मैन्द्रियकं नित्यम् । तद्धि सर्वगतम् । असर्वगतस्तु शब्द इति । तदिदं शब्देऽनित्यत्वलक्षणपूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञान्तर| मसर्वगतः शब्द इति निग्रहस्थानम् । अनया दिशा शेषाण्यपि विंशतिज्ञेयानि । इह तु न लिखितानि पूर्वहेतोरेव । इत्येवं मायाशब्देनात्रच्छलादित्रयं सूचितम् । तदेवं परवश्चनात्मकान्यपि छलजातिनिग्रहस्थानानि तत्त्वरूपतयोपदि| शतोऽक्षपादर्षेर्वैराग्यव्यावर्णनं तमसः प्रकाशात्मकत्वप्रख्यापनमिव कथमिव नोपहसनीयम् । इति काव्यार्थः ॥१०॥ इन २२ निग्रहस्थानोंमेंसे–प्रतिवादी जब हेतुको अनैकान्तिक ( व्यभिचारी) सिद्ध करदे तब प्रतिदृष्टान्तके धर्मको अपने दृष्टान्तमें स्वीकार करते हुए वादीके प्रतिज्ञाहानिनामक निग्रहस्थान होता है । जैसे - वादी शब्दमें अनित्यत्वरूप प्रतिज्ञाको सिद्ध करनेक लिये 'शब्द अनित्य है ऐन्द्रियक (इन्द्रियका विषय) होनेसे घटके समान' ऐसे अनुमानके प्रयोगका कथन करे और इस प्रयोगर्मे प्रतिवादी सामान्य ऐन्द्रियक है तौ भी नित्य देखा गया है; इस प्रकार कहकर ऐन्द्रियकत्वरूपहेतुको व्यभिचारी बना देवे तब वादी जो ऐसा कहै कि; सामान्यके समान घट भी नित्य हो जावे; तो इस प्रकार कहता हुआ वह वादी शब्दमें अनित्यता | सिद्ध करनेरूप जो प्रतिज्ञा है; उसको छोड़ देता है अर्थात् सामान्यरूप प्रतिदृष्टान्तके नित्यत्वधर्मको घटरूप दृष्टान्तमें स्वीकार | करके शब्दको नित्य मानता हुआ वादी प्रतिज्ञाहानिनामक दोषसे दूषित होता है । १ । जब प्रतिवादी अपने ( वादीके ) प्रतिज्ञा किये हुए अर्थका निषेध करदे तब उसी धर्मी में दूसरे धर्मको सिद्ध करनेयोग्य कहते हुए अर्थात् धर्ममें उस धर्मके सिवाय किसी दूसरे धर्मको मानते हुए वादी प्रतिज्ञान्तरनामा दूसरा निग्रहस्थान होता है । जैसे- ' शब्द अनित्य है; ऐन्द्रियक होनेसे | इस प्रकार वादीके कहने पर प्रतिवादी पहले के समान ही सामान्यसे अर्थात् सामान्य ऐन्द्रियक है तौभी नित्य है यह कहकर ऐन्द्रियकत्व हेतुको व्यभिचारी करदे तब यदि वादी ऐसा कहै कि - ' सामान्य ऐन्द्रियक होनेसे नित्य है ' यह तुम्हारा कहना ठीक है; परन्तु सामान्य तो सर्वगत है और शब्द असर्वगत है; । तो इस प्रकार वादी शब्द में अनित्यता सिद्ध करनेरूप जो पहले प्रतिज्ञा की थी, उसको छोड़कर उसी शब्दरूप धर्मी में असर्वगतरूप दूसरी प्रतिज्ञाको कहता हुआ प्रतिज्ञान्तर नामक दूसरे निग्रह | | स्थानको प्राप्त होता है । इसी प्रकारसे शेष जो वीस २० निग्रहस्थान है उनको भी जान लेने चाहियें। यहां तो पहले ही कारणसे अर्थात् अनुपयोगी होनेसे ही शेष निग्रहस्थानोंको नही लिखे है । ऐसे स्तुतिके कर्त्ता आचार्यमहाराजने काव्यमें स्थित मायाशब्दसे छल, जाति तथा निग्रहस्थान नामक तीन पदार्थोंको सूचित किये है। सो इस पूर्वोक्त प्रकारसे दूसरों (वादियों) को ठिगनेरूप छल
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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