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होते हैं वे प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हैं। जैसे पृथिव्यादिकोकी सत्ता (अस्तित्व), कठिनता शीतउष्णादिक स्पर्श तथा छोटापन
बड़ापन आदिक धर्म प्रत्यक्ष दीखते है तथा मदिराकी शक्ति भी चक्कर आजानेपर स्पष्ट दीखती है। इसी प्रकार यदि चैतन्य का भी पृथिव्यादिकोंका धर्म होता तो किसी न किसीमें अवश्य दीखता परंतु किसीमें भी नहीं दीखता है। यदि कहीं कि यह चैतन्य धर्म छुपा रहता है तो हम कहते हैं कि जिसके आश्रय वह छुपा है वही आत्मा है।
कायाकारपरिणतेभ्यस्तेभ्यः स उत्पद्यते इतिचेत्कायपरिणामोऽपि तन्मात्रभावी न कादाचित्कः। अन्यस्त्वात्मैव स्यात् । अहेतुत्वे न देशादिनियमः । मृतादपि च स्यात् । शोणिताद्युपाधिः सुप्तादावप्यस्ति, न च सतस्तलस्योत्पत्तिः; भूयोभूयःप्रसङ्गात् । अलब्धात्मनश्च प्रसिद्धमर्थक्रियाकारित्वं विरुध्यते । असतः सकलशक्तिविकलस्य |
कथमुत्पत्तौ कर्तृत्वमन्यस्यापि प्रसङ्गात् । तन्न भूतकार्यमुपयोगः। | यदि कहों कि जब पृथिव्यादिक शरीररूप परिणमते है तभी उनमें चैतन्य उत्पन्न हो जाता है तो हम पूछते हैं कि कायका परिणमन यदि पृथिव्यादिकोके मिलनेसे ही होजाता हो तो सदा क्यों नहीं रहता है? कभी कभी क्यों होता है ? यदि पृथिव्या
दिकोके अतिरिक्त कोई और भी कारण है तो वह आत्मा ही है । अथवा-यदि कहों कि कायाकार परिणत होनेसे पृथिव्यादिक Kalभूतोमें चैतन्यकी उत्पत्ति होजाती है तो हम पूछते है कि यदि चेतनाकी उत्पत्ति होनेमें भूतोंका कायरूप परिणमन होना ही कारण
है तो कायरूप परिणाम मृतक होनेपर भी विद्यमान है परंतु उसमें चैतन्यका आविर्भाव क्यों नहीं होता है ? यदि और भी कुछ || जकारण मानते हों तो वह आत्मा ही है। यदि चैतन्य उत्पन्न होनेका आत्मरूप एक विशेष कारण न हो तो किसी स्थानमें ज्ञान
होता है और किसीमें नहीं ऐसा नियम नहीं होसकैगा तथा मृतक शरीरसे भी ज्ञान उत्पन्न होने लगेगा। यदि कहों कि
जबतक शरीरमें रक्तस्राव रहता है तभी तक ज्ञान होसकता है तो हम पूछते हैं कि मुझे तो रक्तस्राव क्षीण होजाता है परंतु कासोते हुएके रक्तस्राव बना रहनेपर भी ज्ञान क्यों नहीं होता? और भी एक दोष यह है कि यदि आत्मा न माने तो जो क्रिया
आत्माके बिना किसीसे हो नही सकती है ऐसी प्रश्नोत्तर आदिक क्रिया नहीं होनी चाहिये। जिसमें कोई भी शक्ति नहीं रहसकती ऐसा सकलसामर्थ्यशून्य अभावरूप पदार्थ किसी भी कार्यकी उत्पत्तिका कर्ता नही होसकता है । यदि अभाव |