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है । इसी प्रकारसे आत्मा जो ज्ञान आदि गुण है; वे शरीरमें ही देखे जाते है; शरीरके बाहर नहीं देखे जाते हैं; इसकारण आत्मा शरीरप्रमाण ही है अर्थात् जितना बड़ा उस आत्माका शरीर है; उतना बड़ा ही वह आत्मा है । यद्यपि पुप्प आदिकोंका गंध आदि गुण जहाँपर पुष्पादि विद्यमान है; उस स्थानसे भिन्न दूसरे स्थानमें भी मिलता है; तथापि उस भिन्नस्थानमें गुणोंके | मिलने से यहां पर व्यभिचार नही होता है । क्योंकि उन पुष्पादिमें रहनेवाले गंधआदि गुणोंके पुद्गल स्वभावसे उत्पन्न हुई अथवा प्रयोगसे उत्पन्न हुई गतिसे गमनके धारक है अर्थात् वे गंधादि पुद्गल खभावसे अथवा वायु आदिके प्रयोग ( प्रयत्न ) से गमन करते है; इस कारण पुप्प आदिमें स्थित गंधादिपुद्गलोंका नासिकाइन्द्रिय आदि स्थानों तक आजाना सिद्ध है । इसी कारण आचार्यमहाराज कहते है कि, – “ एतत् " जिसके गुण जहां मिलते है, वह वहां ही रहता है; यह जो हमारा कथन है, वह “ निष्प्रतिपक्षम् " बाघक रहित है । क्योंकि, ' प्रत्यक्षसे देखे हुएमें असिद्धताकी संभावना नही है ' ऐसा न्याय है । भावार्थ- -हमारा उक्त कथन प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध है; अत उसका कोई खंडन करनेवाला नहीं है ।
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ननु मन्त्रादीनां भिन्नदेशस्थानामप्याकर्षणोच्चाटनादिको गुणो योजनशतादेः परतोऽपि दृश्यत इत्यस्ति वाधकमिति चेत् । मैवं वोचः । स हि न खलु मन्त्रादीनां गुणः किन्तु तदधिष्ठातृदेवतानाम् । तासां चाकर्पणीयोच्चाट| नीयादिदेशगमने कौतस्कुतोऽयमुपालम्भः । न जातु गुणा गुणिनमतिरिच्य वर्तन्त इति । अथोत्तरार्द्ध व्याख्यायते । तथापीत्यादि । तथाप्येवं निःसपलं व्यवस्थितेऽपि तत्त्वे अतत्त्ववादोपहताः ( अनाचार इत्यत्रेव नञः कुत्सार्थत्वात् ) कुत्सिततत्त्ववादेन तदभिमताप्ताभासपुरुषविशेषप्रणीतेन तत्त्वाभासप्ररूपणेनोपहता व्यामोहिता देहाद्बहिः शरीरव्यतिरिक्तेऽपि देशे आत्मतत्त्वमात्मरूपं पठन्ति । शास्त्ररूपतया प्रणयन्ते । इत्यक्षरार्थः ।
शंका- भिन्नदेशमें विद्यमान मंत्र आदिका सौ १०० यौजन ( चारसौ ४०० कोश ) आदिसे भी दूर पर्यन्त आकर्षण, उच्चाटन आदिरूप गुण देखा जाता है । यही आपके कथनका बाधक है । भावार्थ- - एक स्थानपर सिद्ध किये हुए मंत्रका गुण; उस स्थानसे सौ योजन से भी अधिक दूरपर रहनेवाले पुरुषका आकर्षण तथा उच्चाटन करता है, इस कारण मंत्रके स्थानसे भिन्न स्थान - में मिलनेवाला जो मंत्रका गुण है; वह आपके उक्त कथनका बाधक है । समाधान - ऐसा मत कहो । क्योंकि वह गुण, उन मंत्र आदिका नहीं है; किन्तु उन मंत्र आदिके अधिष्ठाता ( खामी ) जो देव है, उनका गुण है । और वे देव आकर्षण करने