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साद्वादम.
नमें करना है; उसी स्थानमें , अतः मंत्रके सिद्ध का है। इस कारण यह ताला
प्रसन्न होकर जिस स्थानमें स्थित भावार्थ-
राजै.शा
कदाचित त हो; वह दोष हमारे कथन में इस कारण मंत्र आदिके गुणोंको
योग्य तथा उच्चाटन करनेयोग्य स्थानोंमें स्वयं चले जाते है। इस कारण यह तुम्हारा उपालंभ कहांसे हो सकता है । भावार्थYa आकर्षण आदि गुण देवोंका है, अतः मंत्रके सिद्ध करनेसे उस मंत्रका खामी देव प्रसन्न होकर जिस स्थानमें स्थित पुरुषका आकपूर्षण करना है; उसी स्थानमें चला जाता है। इस कारण मंत्र आदिके गुणोंको भिन्न देशमें मिलते हुए बताकर जो तुम हमारे कथॐ नमें दोष देते हो; वह दोष हमारे कथनमें नहीं होता है । इससे सिद्ध हुआ कि,-जो गुण है, वे गुणी ( पदार्थ) को छोड़कर । o कदाचित् भी नहीं रहते हैं । अब काव्यके तथापीत्यादि उत्तरार्धकी व्याख्या करते है। " तथापि" इस उक्त प्रकारसे बाधकरहित " जैसे हो वैसे तत्त्वको स्थित होनेपर भी अर्थात् हमारा सिद्धान्त विना बाधकके सिद्ध होगया है तो भी “ अतत्त्ववादोपहताः"G
निन्दित तत्त्ववादसे अर्थात् उनके अभीष्ट आप्ताभासरूप किसी पुरुषके द्वारा रचे हुए तत्त्वाभासोंके प्ररूपणसे व्यामोहको प्राप्त हुए वैशेषिक [जैसे 'अनाचार' यहांपर कुत्सित अर्थमें नन् समास होता है; उसी प्रकार अतत्त्ववाद यहांपर भी कुत्सित अर्थमें
नञ् समास किया गया है । ] “ देहाबहिः" शरीरसे भिन्न स्थानमें भी “आत्मतत्त्वं" आत्मापना " पठन्ति" पढ़ते हैं y अर्थात् शास्त्ररूपतासे कहते हैं । भावार्थ हे भगवन् ? हमारा कथन निर्वाध है तो भी वैशेषिक मतवाले किसी अपने अभीष्ट * आप्ताभाससे रचा हुआ जो अतत्त्ववाद है; उससे भ्रमको प्राप्त होकर आत्मा शरीरसे बाहर भी रहता है। ऐसा शास्त्रकी आज्ञारूप
उपदेश देते है। इस प्रकार मूलके अक्षरोंका अर्थ है। To भावार्थस्त्वयम् । आत्मा सर्वगतो न भवति । सर्वत्र तद्गुणानुपलब्धेः। यो यः सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणः स स ॐ सर्वगतो न भवति । यथा घटः। तथा चायं तस्मात्तथा । व्यतिरेके व्योमादि। न चायमसिद्धो हेतुः। कायव्यतिरि
रिक्तदेशे तद्गुणानां बुद्ध्यादीनां वादिना प्रतिवादिना वाऽनभ्युपगमात् । तथा च भदः श्रीधरः “ सर्वगतत्वे ॐ प्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम् । नान्यत्र । शरीरस्योपभोगायतनत्वात् । अन्यथा तस्य वैयादिति”। र भावार्थ तो यह है कि, आत्मा सर्वव्यापी नहीं है। क्योंकि, सर्व स्थानोंमें आत्माके गुणोंकी प्राप्ति नहीं होती है । जिस जिस
पदार्थके गुण सब स्थानोंमें नहीं मिलते हैं; वह वह पदार्थ सर्वव्यापी नहीं होता है। जैसे कि;घटके गुण सर्वत्र न मिलनेसे घट
सर्वव्यापी नहीं है । उस घटके समान ही यह आत्मा है। इस कारण आत्मा सर्वव्यापी नहीं है । व्यतिरेकदृष्टान्तमें आकाश 7 आदि हैं अर्थात् आकाश आदिके गुण सब स्थानों में प्राप्त होते है, अतः आकाश आदि पदार्थ सर्वव्यापी भी है । और हमने जोक
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