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स्याद्वादमं.
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धर्मो सहित वस्तुको अभेदरूपसे जानता है और जो नयरूप ज्ञान होता है वह वस्तुके एक एक धर्मका क्रमसे ग्रहण करता है । | इसीलिये प्रमाणके विपयको तो सकलादेश कहते है और नयात्मक ज्ञानके विपयको विकलादेश कहते है ।
कः पुनः क्रमः? किं च यौगपद्यम् ? यदाऽस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने | शक्त्यभावात्क्रमः । यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्र|त्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्याऽनेकाशेपधर्मरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद्यौगपद्यम् ।
क्रमसे जानना इस शब्दका अभिप्राय तो क्या है और प्रमाण युगपत् समस्त धर्मोंको जानता है ऐसे वाक्यमें जो युगपत् शब्द कहा | उसका अभिप्राय क्या है ? जब एक वस्तुमें रहनेवाले अस्तित्व नास्तित्व आदिक अनंतो धर्मोमं लक्षण प्रयोजनादि कारणो द्वारा भेद| भावकी कल्पना कीजाती है तब एक शब्द के बोलनेसे अनेक धर्मोका प्रतिबोध नही हो सकता है । क्योंकि; उस समय धर्म तो परस्पर " भिन्न भिन्न माने हुए है और एक शब्द अनेक धर्मोका वाचक हो नही सकता है । इसलिये एक वचनसे एक साथ प्रतिपादन न होसकने के कारण प्रत्येक धर्मको क्रमसे ही अनेक शब्दोंद्वारा कहना पड़ता है । इसीको क्रमसे जानना कहते है । और जब उन्ही संपूर्ण धर्मोंको कालादिकी अपेक्षा अभिन्न मानकर सबको एकरूप मानते है तब सभी धर्म एकरूप विवक्षित होनेसे एक ही समय में एक ही शब्दद्वारा पुकारे जा सकते हैं । परंतु तब भी एक शब्द जो बोलते है वह होता किसी न किसी एक ही धर्मका वाचक है किंतु उस एक धर्मकी मुख्यता करके बोलनेसे उसका अर्थ संपूर्ण धर्मोका समुदाय माना जाता है । क्योंकि, उस समय संपूर्ण धर्मोको एकखरूप ही मान रक्खा है । इसीका नाम युगपत् है । अर्थात् एक धर्मकी मुख्यता करके एक शब्द बोलनेपर भी अभेद विवक्षासे संपूर्ण धर्मो में अभेद समझ लेना ही युगपत्शब्दका अर्थ है ।
के पुनः कालादयः ? कालः आत्मरूपम्, अर्थः, संबन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्गः, शब्द इति । तत्र (2) स्याज्जीवादिवस्त्वस्त्येवेत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेपानन्तधर्मा वस्तुन्येकत्रेति तेषां कालेनाऽभेदवृत्तिः । (२) यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीति आत्मरूपेणाऽभेदवृत्तिः । ( ३ ) य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवाऽन्यपर्यायाणामित्यर्थेनाऽभेदवृत्तिः । ( ४ ) य एव चाऽवि - ष्वग्भावः कथंचित्तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धोऽस्तित्वस्य स एव शेषविशेषाणामिति सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तिः । ( ५ )
रा. जै. शा
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