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________________ स्याद्वादम. ॥१४२॥ सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि वे नाना प्रकारकी वासना ज्ञानके अतिरिक्त कोई अन्य वस्तु है अथवा ज्ञानमय ही है ? यदि ज्ञानसे राजै.शा. अभिन्न ज्ञानमय ही है तो ज्ञान तो एक प्रकार ही बौद्धोंने माना है फिर वासना ज्ञानसे अभिन्न होकर भी नाना प्रकारकी होजानेमें क्या कारण है ? यदि ज्ञान के अतिरिक्त वासना कोई अन्य पदार्थ है तो और भी बाह्य पदार्थ जो प्रत्यक्ष दीखते हैं उनके माननेमें क्या बुराई है जिससे कि सर्व जनोंकी प्रतीतिको मिथ्या ठहराते हो। इस प्रकार ज्ञान और बाह्य पदार्थोंमें परस्पर भेद सिद्ध हुआ। तथा च प्रयोगः । विवादाध्यासितं नीलादि ज्ञानाव्यतिरिक्तं विरुद्धधर्माध्यस्तत्वात् । विरुद्धधर्माध्यासश्च ज्ञानस्य शरीरान्तः अर्थस्य च बहिः, ज्ञानस्याऽपरकालेऽर्थस्य च पूर्वकाले वृत्तिमत्त्वात् ; ज्ञानस्य आत्मनः सकाशादर्थस्य च स्वकारणेभ्य उत्पत्तेः; ज्ञानस्य प्रकाशरूपत्वादर्थस्य च जडरूपत्वादिति । अतो न ज्ञानाद्वैतेsभ्युपगम्यमाने वहिरनुभूयमानार्थप्रतीतिः कथमपि संगतिमङ्गति न च दृष्टमपह्नोतुं शक्यमिति। अत एवाह स्तुतिकारः "न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित्" इति। सम्यगवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित् । स्वसंवेदन पक्षे तु संवेदनं संचित् ज्ञानम्। तस्या अद्वैतम् । द्वयोर्भावो द्विता । द्वितैव द्वैतं प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकेऽणि न y द्वैतमद्वैतं बाह्यार्थप्रतिक्षेपादेकत्वम् । संविदद्वैतं ज्ञानमेकं तात्त्विकं न बाह्योऽर्थ इत्यभ्युपगम्यते इत्यर्थः। To अनुमानसे भी इसको इस प्रकार सिद्ध करते है कि विवादापन्न जो नीलादिक पदार्थ है वे अवश्य ज्ञानके अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु है । क्योंकि ज्ञान तथा उन नीलादि पदार्थोंमें परस्पर विरुद्ध धर्म देखे जाते हैं । वे विरुद्ध धर्म कोनसे है ? ज्ञान, तो शरीरके भीतर ही रहता है और ज्ञेय पदार्थ शरीरके बाहिर भी रहते है; ज्ञेय पदार्थ तो ज्ञानसे पहिले समय भी मिलता है। परंतु ज्ञान केवल ज्ञेय पदार्थ उत्पन्न होचुकनेपर ही मिलता है; ज्ञान तो आत्मासे उत्पन्न होता है तथा ज्ञेय पदार्थ अपने अपने [. भिन्न भिन्न कारणोंसे उपजते है; इसी प्रकार ज्ञान तो सर्व पदार्थोंको प्रकाशनेवाला है तथा ज्ञेय पदार्थ स्वयं जड़खरूप है इत्यादि । ॐ ज्ञान तथा ज्ञेय पदार्थों में परस्पर बहुतसे विरोधी धर्म है। इसलिये यदि ज्ञानके अतिरिक्त कुछ भी बाह्य पदार्थ न माने १. जायगे तो बाहिरके पदार्थोंकी जो खयं अपने अपने अनुभवसे प्रतीति होती है वह किसी प्रकार सिद्ध न होसकैगी। और ॥१४२॥ प्रत्यक्ष दीखते हुए बाह्य पदार्थोंका "बाह्य पदार्थ है ही नहीं" ऐसा विनायुक्ति निषेध करना भी सहज नहीं है। इसीलिये स्तुति- ' कर्ता श्रीहेमचन्द्राचार्य कहते है कि "न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित्" । अर्थात्-केवल ज्ञानाद्वैत यदि माना जाय तो बाह्य
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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