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और सुख तो आत्माका स्वरूप होनेसे मुक्त जीवके है ही है । क्योंकि, अपने स्वरूपमें जो स्थित होना है; वही मोक्ष कहलाता है;
भावार्थ-सुख आत्माका खरूप है । और खरूपमें स्थित होना ही मोक्ष है, अतः मुक्तजीवके सुख है ही । तथा इसी लाकारण 'अशरीरं वा' इत्यादि आगममें अशरीर ऐसा कहा है । और इस आगमके अर्थका इसी प्रकार तुमको समर्थन करना चाहिये
अर्थात् हमने जैसा आगमका अर्थ किया है; वैसा ही तुमको करना चाहिये । क्योंकि उस आगमके अर्थका अनुसरण करनेवाली स्मृति भी देखी जाती है । वह यह है कि; ' जहां बुद्धिसे ग्रहण करने योग्य और इंद्रियोंके अगोचर ऐसा आत्यंतिक सुख है;
उसीको पापी जीवोंको दुर्लभ ( दुःखसे प्राप्त होने वाला ) मोक्ष जानना चाहिये । १।” और यहां पर यह सुख शब्द केवल IN दुःखके अभावमें ही नहीं है । अर्थात् यदि तुम कहो कि; यहां सुखशब्दसे दुःखके अभावरूप अर्थका ही ग्रहण है, सो नहीं है।
क्योंकि प्रथम तो सुख शब्दका मुख्य सुखरूप अर्थके करनेमें कोई बाधक नहीं है; दूसरे यदि सुखसे दुःखका अभाव ही माना IN|जावे तो ' यह रोगसे रहित होकर सुखी हो गया' इत्यादि वचनोंमें पुनरुक्तिदोषका प्रसंग होता है । भावार्थ-यदि दुःखके |
अभावको ही सुख मानों तो ' यह रोगसे रहित हो गया ' इस कहनेसे ही यह सुखी होगया ऐसा समझ लिया जावेगा अतः |
- यह रोगसे रहित होकर सुखी हो गया ' ऐसा कथन करनेमें पुनरुक्तिदोष होगा और वह तुमको इष्ट नहीं है। KI न च भवदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः । को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमु
पपादयितुं यतेत । दुःखसंवेदनरूपत्वादस्य। सुखदुःखयोरेकस्याभावे परस्यावश्यम्भावात् । अत एव त्वदुपहासः श्रूयते । “ वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् । न तु वैशेषिकी मुक्तिं गौतमो गन्तुमिच्छति । १।" सोपाधिकसावधिकपरिमितानन्दनिष्यन्दात्स्वर्गादप्यधिकं तद्विपरीतानन्दमम्लानज्ञानं च मोक्षमाचक्षते विचक्षणाः। यदि तु जडः पाषाणनिर्विशेष एव तस्यामवस्थायामात्मा भवेत्तदलमपवर्गेण । संसार एव वरमस्तु । यत्र तावदन्तरान्तरापि दुःखकलुषितमपि कियदपि सुखमनुभुज्यते । चिन्त्यतां तावत्किमल्पसुखानुभवो भव्य उत सर्वसुखोच्छेद एव। । और तुम्हारे कहे हुए मोक्षको मनुष्य उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) रूप नही मानते है । क्योंकि; ऐसा कौन पुरुष है जो का शिलाके समान सब सुखोंके ज्ञानसे रहित ऐसे आत्माको बनानेके लिये प्रयत्न करै, भावार्थ-जैसे शिला ( एक पाषाणभेद )