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खाद्वादमं. ॥१४७॥
इस प्रकार जब प्रमाण ही सिद्ध नहीं होता तो प्रमाणके फलरूप प्रमितिकी क्या कथा ! इमलिये सर्वथा शून्यता मानना । ग.जैसा ही उत्तम सिद्धांत है । ऐसा ही कहा भी है "जैसा जैसा विचार करते है तैसा तैना ही पदार्थमा विलय होता जाता है। यदि
कोई पूछ कि तुम प्रत्यक्ष दीखते हुए पदार्थोंका अभाव कैसे करसकते हो तो हम उत्तर देते है कि हम कुछ नहीं करते है परंतु * जब पदार्थोंका खरूप ही ऐसा है तो उसमें हमारा करना क्या है ? इस प्रकार शून्यवादी अपने मतका मंडन करता है। यदि
विस्तारसे इसका विवेचन देखना हो तो तत्त्वोपप्लवसिंहनामक ग्रन्थसे देखलेना चाहिये । ४ अत्र प्रतिविधीयते । ननु यदिदं शून्यवादव्यवस्थापनाय देवानांप्रियेण वचनमुपन्यस्तं तच्छून्यमशून्यं वा ?
शून्यं चेत्सर्वोपाख्याविरहितत्वात् खपुप्पणेव नानेन किंचित्साध्यते निषिध्यते वा । ततश्च निष्प्रतिपक्षा प्रमाणादितत्त्वचतुष्टयीव्यवस्था । अशून्यं चेत्मलीनस्तपस्वी शून्यवादः; भवदचनेनैव सर्वशून्यताया व्यभिचारात् ।
तत्रापि निष्कण्टकैव सौ भगवती । तथापि प्रामाणिकसमयपरिपालनार्थ किंचित्तत्साधनं दृष्यते । तत्र यत्ता५ वदुक्तं प्रमातुः प्रत्यक्षेण न सिद्धिरिन्द्रियगोचराऽतिक्रान्तत्वादिति तत्सिद्धसाधनम् । यत्पुनरहप्रत्ययेन तस्य ।
मानसप्रत्यक्षत्वमनैकान्तिकमित्युक्तं तदसिद्धम् अहं सुख्यहं दुःखीत्यन्तमुखस्य प्रत्ययत्य आत्मालम्बनतयैवोपपत्तेः । तथा चाहुः "सुखादि चेत्यमानं हि स्वतन्त्रं नानुभूयते । मतुवर्थानुवेधात्तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः॥१इदं सुख मिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत् । अहं सुखीति तु ज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका । २।" यत्पुनरहं गौरोहं श्याम G
इत्यादिवहिर्मुखः प्रत्ययः स खल्वात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते । यथा प्रियभृत्येऽहमितिक " व्यपदेशः। ____ अब इस शून्यबादीके मतका खंडन करते हैं। हम पूछते हैं कि इस शून्यवादीने सर्वशून्यता सिद्ध करनेकेलिये जो वचन बोला है वह भी कुछ है अथवा शून्यरूप ही है। यदि कुछ नहीं है किंतु शून्य ही है तो जिस प्रकार गधेके सीग कुछ न होनेसे कुछ नहीं कर सकते है उसी प्रकार इसके वचनसे भी अमरूप होनेके कारण न तो किसी शून्यवादादिककी सिद्धि होस
॥१४॥ y कती है और न किसी विद्यमान पदार्थका निषेध होसकता है। इसलिये ऐसे शून्यवचनद्वारा निषेध न होसफनेसे ही प्रमा
१ अशून्यपक्षेऽपि । २ तवचतुष्टयी। ३ वेद्यमानम् । अनुरोधात् ।