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Nणादि चारो विषयोंका होना निष्कंटक सिद्ध होता है । और यदि शून्यवादी अपने वचनको कुछ है ऐसा मानता हो तो विचारा उस |
शून्यवादीका खेदखिन्न शून्यवाद ही नष्ट होजायगा। क्योंकि, जब उसीका वचन कुछ विद्यमान सत्तारूप पदार्थ है तो सर्वशून्यता कहां रही इसलिये अब भी हमारी प्रमाणादि चतुष्टयरूप भगवती अर्थात् वाणी निष्कंटक सिद्ध है। इस प्रकार यद्यपि हमारी वाणीका खण्डन शून्यवादीके वचनोसे नहीं होसकता है तो भी युक्तिपूर्वक विचार करनेवाले विद्वानोकी परिपाटीके अनुसार शून्यवादीके वचनोमें और भी दोष दिखाते हैं । शून्यवादीने सबसे प्रथम जो यह कहा कि प्रमाता जो आत्मा उसकी सिद्धि प्रत्यक्ष ज्ञानसे नही है क्योंकि आत्मा इंद्रियगोचर नही है सो यह कहना हमको भी इष्ट है । अर्थात् हम भी यही मानते हैं कि आत्मा इंद्रियगोचर न होनेसे प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है। परंतु जो यह कहा कि मै सुखी हू मै दुःखी हु इत्यादि अपने अंतरंगमें उत्पन्न हुए मानसिक प्रत्यक्षसे भी आत्मसिद्धि होना असभव है क्योंकि, ऐसा ममत्वका ज्ञान शरीरको अपना निज खरूप माननेसे भी होसकता है सो यह कहना असत्य है क्योंकि मै सुखी हू मै दुःखी हू ऐसा अंतरंगको विषयकरनेवाला ज्ञान आत्मामें ही उत्पन्न हो सकता है यही कहा भी है “ सुखादिकका जो अनुभव होता है वह आधारके विना नहीं होसकता है इसलिये सुखादिकके ज्ञानद्वारा उसके आधारभूत आत्माका भी प्रत्यक्ष होना सिद्ध होता है। यह सुख है अथवा दुःख है ऐसा जो ज्ञान होता है वह ऐसा नही मालुम पड़ता है जैसा कि घटादि बाह्य पदार्थोका ज्ञान मालुम पड़ता है। अर्थात् घटादिकोका ज्ञान तो बाहिरकी तरफको ऐसा होता है कि यह
घड़ा अपनेसे भिन्न अमुक स्थानपर है परंतु मै सुखी हू यह सुखज्ञान घडेके समान वाहिरकी तरफ होता हुआ अनुभवमें नही आता है KOI किंतु भीतरकी तरफ खास आत्माके आलंबनपूर्वक ही होता है। इसलिये इस मानस प्रत्यक्षसे आत्माका प्रत्यक्ष सिद्ध होना अनु
भवसे सिद्ध होता है"। और जो मै काला हू मै गौर हू इत्यादि शरीरको माननेवाला ज्ञान होता है वह प्रयोजनके वश होकर शरीर में आरोपित किया है; न कि यथार्थमें शरीरादिक ही अहंकारके आधार है। आरोपित करनेका निमित्त भी यह है कि आत्माके सुख दुःख होनेमें शरीर सहकारी है तथा आत्माके अत्यंत निकट है । अर्थात्-यह निमित्त पाकर ही आत्मामें होनेवाले अहंकारको हमलोग शरीरके आश्रित समझते है । निमित्तके विना भी यदि एकका दूसरेमें आरोपण होसकता हो तो आरोपण करते करते कभी छुटकारा ही न मिलसकै । इस आत्माके अहंकाररूप धर्मका जिसका कि शरीरमें आरोपण होता है ठीक ऐसा ही मानना है जैसा प्यारे नोकरको मानना कि यह नोकर जुदा नही है कि मेरा ही शरीर है।
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