SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ / क्रियाका आधार है तैसे आधार है। जो इस शरीरको हिताहितके लिये हलाता चलाता है वह आत्मा ही है। जैसे रथके हांकनेवाला सारथी । और भी जैसे जब कोई चलानेवाला होता है तभी भातडीमेसे जितना वायु चाहिये उतना निकलता है नही तो नही तैसे शरीरका प्राणापानादिक वायु इच्छानुकूल तभी चल सकता है जब कोई इस शरीररूप भस्त्राको हलानेवाला हो। जिस प्रकार भातडीको हलानेवाला कोई प्राणी होता है उसी प्रकार प्राणापानादि वायुको इच्छानुकूल चलानेवाला आत्मा है । और भी इसी प्रसंगपर एक तीसरा अनुमान यह है कि इस शरीरके नेत्रादिक अंगोमें सकोच विस्तार करनेकी अथवा खोलने बंदकरने की जो चेष्टा है वह किसी न किसी शरीरके अतिरिक्त कारण बिना नही होसकती है। जैसे लकड़ीके बने हुए बहुतसे खिलोने ऐसे होते है जो दवानेसे खुल जाते है तथा हाथ ढीला करदेनेपर फिर बंद होजाते है । इसलिये वे खिलोने जिस प्रकार हाथकी प्रेरणा बिना खुल नहीं सकते तथा बंद नहीं होसकते है उसी प्रकार आत्माके बिना शरीरके नेत्रादिक अंगोका खुलना बंदहोना असंभव है। और भी आत्माकी सिद्धि करने में एक अनुमान यह है कि शरीरकी वृद्धि हानि होनेपर तथा किसी अंगउपांगके भग्न होजानेपर भी फिरसे उसकी पूर्ति होना इत्यादिक जो कार्य है वे किसी न किसी प्रयत्नशील कारणके बिना नहीं होसकते है । क्योंकि ये वृद्धिहानिरूप शरीरके कार्य भी एक प्रकार टूटेफुटेकी मरम्मत होजानेके समान है । जैसे घरका || बनाना ढाइदेना तथा टूटनेफूटनेपर मरम्मत करना किसी प्राणीके बिना नहीं होसकता तैसे ही किसी विशेष कर्ताके बिना शरीरकी नहानि वृद्धि तथा घावका पुरना इत्यादि कार्य नहीं होसकते है। वृक्षादिकोमें भी जो कुछ वृद्धि हानि होती है वह किसी न किसी एकेन्द्रिय जीवके रहनेपर ही होती है । जब जीव नही रहता है तब वृक्षादिकोंका घटना बढना भी बंद हो जाता है। इसलिये वृक्षादिकोंकी हानिवृद्धिसे भी हमारे इस अनुमानमें बाधा नही है। जैसे घरका स्वामी घरके बनाने बिगाडनेवाला होता है तैसे जो इस घटने बढनेकों करनेवाला है वही आत्मा है । वृक्षादिकोमें जो जीव माने जाते है उनका निश्चय आचारांगादि शास्त्रोंसे करलेना चाहिये तथा हम भी कुछ कहैगे। All तथा प्रेयं मनः अभिमतविषयसम्बन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्दारकहस्तगतगोलकवत् । यश्चास्य प्रेरकः स आत्मा इति । तथा आत्मचेतनक्षेत्रज्ञजीवपुरुषादयः पर्याया न निर्विषयाः पर्यायत्वाद् घटकुटकलशादिपर्यायवत् । व्यतिरेके षष्ठभूतादिः । यश्चैषां विषयः स आत्मा । तथाऽस्त्यात्मा असमस्तपर्यायवाच्यत्वात् । यो योऽप्साङ्केतिकशु Lesson
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy