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बाद्वादमं.
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को जानने की इच्छा किये बिना भी उन विषयोंका ज्ञान उत्पन्न होने की प्रतीति होती है । और पदार्थका ज्ञान अयोग्यदेश नहीं है। अर्थात् जानने योग्य स्थलमें विद्यमान नहीं है ऐसा नहीं है, क्योंकि, यह आत्मामें समवेत ( समवाय संबंधसे संबद्ध हुआ ) उत्पन्न होता है । इस प्रकार जिज्ञासा के बिना ही अर्थज्ञानमें ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग होता है ।
यदि कहोकि, जिज्ञासा के बिना ही अर्थज्ञानमें ज्ञान उत्पन्न होजाओ क्या दोष है, तो यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है । क्योंकि, ऐसा माननेपर उस अर्थज्ञानके ज्ञानमें दूसरे ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग होगा और उसमें भी इसी प्रकार फिर दूसरे ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसग होगा और इसप्रकार दूसरे दूसरे ज्ञानोंकी उत्पत्तिकी परंपरामें ही अपना व्यापार होनेसे ज्ञानका दूसरे विषयोमे सचार नही होगा। इस कारण जो ज्ञान है वह अपना ज्ञान होनेके लिये किसी दूसरे ज्ञानके व्यापारकी अपेक्षा नही करता है । जैसे कि - एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयको ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे पहले होनेवाले विषयान्तरको ग्रहण करनेवाले धारावाही ज्ञानके प्रबधका अन्तिम ज्ञान अपने ज्ञानके लिये किसी दूसरे ज्ञानके व्यापारकी अपेक्षा नही करता है । और यहा विवादापन्न जो ज्ञान है, वह रूप आदिका ज्ञान है । भावार्थ - जैसे घटका ज्ञान होनेके पश्चात् पटका ज्ञान किया जावे तो जबतक पटका निश्चय न हो तबतक 'पटोऽयं पटोऽयम्' अर्थात् यह पट है यह पट है इत्यादि रूप जो धारावाही ज्ञान है, उस धारावाही ज्ञानके प्रबंधका जो पटका निश्चय करानेवाला अतिम ज्ञान है; वह अपने ज्ञानके लिये दूसरे ज्ञानकी सहायता नही चाहता है; इसी प्रकार जो ज्ञान है, वह अपने ज्ञानके लिये किसी दूसरे ज्ञानकी अपेक्षा नहीं करता है। इस उक्त प्रकारसे सिद्ध हुआ कि,- नैयायिकमतवाले जो ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे अर्थात् मानसप्रत्यक्षसे ज्ञेय ( जानने योग्य ) मानते है सो युक्तिको सहन नही करता है अर्थात् मिथ्या है। इसप्रकार काव्यका अर्थ है । १२ ।
अथ ये समर्थयन्ते । तन्मतमुपहसन्नाह । -
ब्रह्माद्वैतवादिनोऽविद्याऽपरपर्यायमायावशात्प्रतिभासमानत्वेन
विश्ववयवर्त्तिवस्तुप्रपञ्चमपारमार्थिकं
अब जो ब्रह्माद्वैतवादी ( एक आत्माको ही पदार्थरूप कहनेवाले ) अर्थात् वेदान्ती अविद्या है दूसरा नाम जिसका ऐसी मायाके वशसे प्रतिभासमान होनेसे तीन लोकमें विद्यमान पदार्थों के समूहको अपारमार्थिक सिद्ध करते है अर्थात् तत्त्वरूप नही मानते है, उनके मतका हास्य करते हुए आचार्य इस अग्रिम काव्यका कथन करते है । -
रा.जे. शा
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