________________
माया सती चेद्वयतत्त्वसिद्धिरथासती हन्त कुतः प्रपञ्चः।
मायैव चेदर्थसहा च तत्किं माता च वन्ध्या च भवत्परेषाम् ॥ १३॥ सूत्रभावार्थ-हे भगवन् ! यदि वेदान्ती मायाको सवरूप मानें तब तो दो तत्त्व सिद्ध होजावें । अर्थात् एक तो उनका माना हुआ आत्मब्रह्मतत्त्व है ही और दूसरा सवरूप माननेसे मायारूप तत्त्व भी सिद्ध होजावे । और यदि वे मायाको असरूप मानें || तो आश्चर्य है कि, यह तीनलोकवर्ती पदार्थोका समूहरूपी प्रपंच कैसे दृष्टिगोचर होता है । और यदि वे वेदान्ती यह कहें कि, | वह माया भी है और अर्थक्रियामें समर्थ पदार्थोंको दिखलानेमें भी समर्थ है तो क्या आपसे पर ( आपकी आज्ञाके बहिर्भूत ) उन वेदान्तियोंके माता भी है और वंध्या भी है ॥ १३ ॥
व्याख्या । तैर्वादिभिस्तात्त्विकात्मब्रह्मव्यतिरिक्ता या माया अविद्या प्रपञ्चहेतुः परिकल्पिता सा सद्रूपा असलू-II पा वा द्वयी गतिः । सती सद्रूपा चेत् तदा द्वयतत्त्वसिद्धिावयवौ यस्य तद् द्वयं तथाविधं यत्तत्त्वं परमार्थस्तस्य सिद्धिः। अयमर्थः एकं तावत्त्वदभिमतं तात्त्विकमात्मब्रह्म, द्वितीया च माया तत्त्वरूपा सद्रूपतयाङ्गीक्रियमाणत्वात् । तथा चाद्वैतवादस्य मूले निहितः कुठारः । अयेति पक्षान्तरद्योतने । यदि असती गगनाम्भोजववस्तुरूपा सा माया ततो हन्तेत्युपदर्शने आश्चर्ये वा, कुतः प्रपञ्चः अयं त्रिभुवनोदरविवरविवर्तिपदार्थसार्थरूपप्रपचः कुतो न कुतोऽपि सम्भवीत्यर्थः । मायाया अवस्तुत्वेनाभ्युपगमात, अवस्तुनश्च तुरङ्गशृङ्गस्येव सर्वोपाख्याविरहितस्य साक्षात्क्रियमाणेदृशविवर्तजननेऽसमर्थत्वात् । किलेन्द्रजालादौ मृगतृष्णादौ वा मायोपदर्शितार्थानामथेक्रियायामसामर्थ्य दृष्टम्, अत्र तु तदुपलम्भात्कथं मायाव्यपदेशः श्रद्धीयताम् । या व्याख्यार्थ:-उन वेदांतवादियोंने तत्त्वखरूप आत्मब्रह्मसे जुदी ऐसी जिस माया ( अविद्या) को प्रपंचकी कारण||भूता माना है, वह माया या तो सतरूप होवे और या असत्रूप होवे; ये दोही विकल्प है। " सती चत् " यदि वादा
मायाको सत्रूप कहे, तव तो “द्वयतत्त्वसिद्धिः" जिसके दो अवयव हो। उसको द्वय कहते है, द्वय (दो अवयवोंका धारक) || ऐसा जो तत्त्व अर्थात् परमार्थ है; उसकी सिद्धि होगी अर्थात् पहले एक तो उनका माना हुआ तत्त्वरूप आत्मब्रह्म है ही और