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IN तीयपादवर्तमानम् । 'श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपम्' इति विशेष्यमनुवर्त्तमानं बुद्धौ संप्रधार्य विज्ञेयम् । तत्र हिy
आत्मरूपमितिविशेष्यपदम् । प्रकृष्ट आत्मा आत्मरूपस्तं परमात्मानमिति यावत् । आवृत्त्या वा विशेषणमपि
विशेष्यतया व्याख्येयमिति प्रथमवृत्तार्थः ॥ १॥ INI इस श्लोकमें जो 'श्रीवर्द्धमानं ' इस पदका विशेषणरूपसे व्याख्यान किया गया है, वह अयोगव्यवच्छेद' नामकी धारक ||
जो प्रथम द्वात्रिंशतिका ( पहली बत्तीसी ) है, उसके प्रथमकाव्यके तीसरे चरणमें विद्यमान ' श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपम् ' इस IN विशेष्यको अपनी बुद्धिमें चला आता हुआ समझकर जानना चाहिये । वहांपर 'आत्मरूपं यह विशेप्यपद है । प्रकृष्ट अर्थात् |
उत्तम आत्मा जो हो, वह आत्मरूप अर्थात् परमात्मा है, उसको । अथवा पुन: आवृत्ति करके अर्थात् 'श्रीवर्द्धमानं ' इस पदको| N|| पहले विशेषणमें लेकरके, फिर विशेप्यरूपसे ग्रहण करके व्याख्यान करना चाहिये । इसप्रकार प्रथम काव्यका अर्थ है ॥१॥ IM अस्यां च स्तुतावन्ययोगव्यवच्छेदोऽधिकृतस्तस्य च तीर्थान्तरीयपरिकल्पिततत्त्वाभासनिरासेन तेपामाप्तत्व
व्यवच्छेदः स्वरूपम् । तच्च भगवतो यथाऽवस्थितवस्तुतत्त्ववादित्वख्यापनेनैव प्रामाण्यमश्नुते । अतःस्तुतिकारस्त्रिजगद्गुरोनिःशेषगुणस्तुतिश्रद्धालुरपि सद्भूतवस्तुवादित्वाख्यं गुणविशेषमेव वर्णयितुमात्मनोऽभिप्रायमा-N विष्कुर्वन्नाह । - इस स्तुतिमें अन्ययोगव्यवच्छेद अर्थात् दूसरों के संबंधको भिन्न करना लिया गया है और उसका : अन्यमतियों करके TV कल्पना किये हुए जो तत्त्वाभास है, उनका खंडन करके, उन अन्यमतियोंको आप्तसे भिन्न करना' यह स्वरूप है । और वह
भगवान्के वस्तुका स्वरूप जैसा स्थित है, वैसा कहनेवाले गुणका धारकपना प्रसिद्ध करनेसे ही प्रमाणताको प्राप्त होता है । इसकारण स्तुतिके कर्ता आचार्य यद्यपि तीन जगत्के गुरु श्रीभगवान्के समस्त गुणोंकी स्तुति करनेमें भक्ति रखते है, तो भी यथास्थितपदार्थोंको । कहनेरूप जो एक गुण है, उसीका वर्णन करनेके लिये अपने अभिप्रायको प्रकट करते हुए अग्रिम काव्यका कथन करते है ।
१ पर्यायः ।