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स्याद्वादमं.
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विकार होता है तो जिस प्रकार बँधने पर चर्ममें विकार होजाता है इसलिये वह अनित्य है उसी प्रकार जीवमें भी बँधने पर विकार होजाता है इसलिये जीवको अनित्य मानना चाहिये । और यदि बॅघनेसे जीवमें कुछ विकार उपजता ही नही तो उनको बँधनेपर बँधा तथा बंध टूटने पर मुक्त भी नही कहना चाहिये । जैसे- किसी वस्तुमें कैसा ही उत्पाद विनाश होता रहै परंतु वहांका गगन सदा निर्विकार रहता है इसलिये वह सदा ही शुद्ध मानागया है । इसी प्रकार बधन निष्फल होनेसे आत्मा सदा ही मुक्त रहना चाहिये । और जब बंधमोक्ष कुछ है नही तो जगत् में बंध मोक्षकी व्यवस्था मानना ही मिथ्या ठहरता है । यही कहा है " वर्षा होनेसे तो गीलापन तथा गरमी पडनेसे कठोरता चमड़े में ही होजाती है; गगनमें नही । इसलिये यदि आत्मा गगनके समान है तो बंधमोक्ष होना निष्फल है और यदि चर्मके समान है तो अनित्यता सिद्ध होती है "। इस प्रकार जब बंधन कोई चीज नही है तो मोक्ष कहना भी अनुचित है । क्योकि, वधके विच्छेद होजानेका नाम ही मोक्ष है ।
एवमनित्यैकान्तवादेऽपि सुखदुःखाद्यनुपपत्तिः । अनित्यं हि अत्यन्तोच्छेदधर्मकम् । तथाभूते चात्मनि पुण्योपादानक्रियाकारिणो निरन्वयं विनष्टत्वात् कस्य नाम तत्फलभूतसुखानुभवः ? एवं पापोपादानक्रियाकारिणोऽपि निरवयवनाशे कस्य दुःखसंवेदनमस्तु ? एवं चान्यः क्रियाकारी अन्यश्च तत्फलभोक्तेत्य समञ्जसमापद्यते । अथ " यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कर्पासे रक्तता यथा " इति वचनान्नासमञ्जसमित्यपि वाङ्मात्रं; सन्तानवासनयोरवास्तवत्वेन प्रागेव निर्लोठितत्वात् । तथा पुण्यपापे अपि न घटेते । तयोर्ह्यर्थक्रिया सुखदुःखोपभोगः । तदनुपपत्तिश्चानन्तरमेवोक्ता । ततोऽर्थक्रियाकारित्वाऽभावात्तयोरप्यघटमानत्वम् ।
इसी प्रकार सर्वथा क्षणिकता माननेसे भी सुखदुःखादिककी उत्पत्ति होना असंभव ही दीखता है। जिसका एक अंशमात्र अथवा एक धर्ममात्र भी शेष न रहै किंतु सर्वनाश हो जानेवाले पदार्थको यहांपर बौद्धोने अनित्य माना है। इस प्रकारसे संपूर्ण ही पदार्थ बौद्धमतानुसार अनित्य हैं । सो जो ऐसा आत्मा है तो जिस आत्माने पुण्यकर्मका अथवा पापकर्मका उपार्जन किया उसका दूसरे ही समय यदि सर्वथा नाश होजायगा तो पुण्यकर्मसे मिलनेवाले सुखका अथवा पापकर्मसे मिलनेवाले दुःखका अनुभव कोन करेगा ? यदि कहो कि आगेका आत्मा जो नवीन उत्पन्न होगा वह इस सुखदुःखका अनुभव करेगा तो जिसने किया वह तो भोगने ही नही पाया तथा जिसने कुछ भी नही किया उसको भोगना पडा सो यह प्रवृत्ति अनुचित है। और ऐसा होनेपर
रा. जै. शा
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