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याया अपर्यवसानादेकस्यापि कार्यस्य न सृष्टिः । घटो हि स्वारम्भक्षणादारभ्य परिसमाप्तेरुपान्त्यक्षणं यावन्निश्चयनयाभिप्रायेण न घटव्यपदेशमासादयति । जलाहरणाद्यर्थक्रियायामसाधकतमत्वात् । । अब जो तुम ईश्वरको नित्य कहते हो, सो भी तुम्हारे घरमें ही कहा हुआ अच्छा लगता है; अर्थात् अपने मतवालोंमें भी
तुम चाहे ईश्वरको नित्य कहलो, परन्तु हमारे सामने ईश्वरको नित्य नहीं कह सकते हो। क्योंकि वह ईश्वर नित्य होनेसे . | एकरूपका धारक है, इसकारण हम पूछते है कि, वह ईश्वर तीन जगतको रचनेवाले खभावको धारण करता है ? अथवा तीन जगतकी रचना करनेवाला जो खभाव है, उसको नहीं धारण करता है ? यदि कहो कि तीन जगतको रचनेवाले स्वभावका धारक है, तब तो वह जगतके बनानेसे कभी भी विश्राम न लेवे, और यदि विश्राम लेलेवे तो उसके स्वभावका नाश हो जावे । भावार्थ-जब वह जगतकी रचना करनेरूप खभावका ही धारक है । तो सदाकाल जगतरूप कार्यको करता ही रहेगा और ऐसा मानने पर ईश्वर जो जगतको रचनेरूप क्रिया करता है, उसकी समाप्ति न होनेसे एक भी कार्यकी रचना न होगी। क्योंकि
भिप्रायसे घट जो है सो अपनी रचना प्रारंभ होनेके प्रथम क्षणको लेकर अपनी रचनाकी समाप्तिके अंतिम क्षण-IN पर्यन्त घट इस व्यवहारको नहीं प्राप्त होता है । क्योंकि जबतक वह बन न चुके, तबतक जलको ग्रहण करना इत्यादिरूप जो अर्थक्रिया है, उसमें असाधकतम है अर्थात् वह घट बन चुकने विना जल भरने आदिमें असमर्थ है। __ अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत्तत्स्वभावायोगाद्गगनवत् । अपि च तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिव-al त्संहारोऽपि न घटते । नानारूपकार्यकरणेऽनित्यत्वापत्तेः । स हि येनैव स्वभावेन जगन्ति सृजेत्तेनैव तानि संहरेत् स्वभावान्तरेण वा । तेनैव चेत्सृष्टिसंहारयोर्योगपद्यप्रसङ्गः। स्वभावाभेदात् । एकस्वभावात्कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात् । स्वभावाऽन्तरेण चेन्नित्यत्वहानिः । स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः। यथा पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहकृतस्य प्रत्यहमपूर्वाऽपूर्वोत्पादेन स्वभावभेदादनित्यत्वम् । इष्टश्च भवतां सृष्टिसंहारयोः । शम्भौ स्वभावभेदः । रजोगुणात्मकतया सृष्टौ, तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्विकतया च स्थितौ, तस्य व्यापारस्वीकारात् । एवं चावस्थाभेदस्तद्भेदे चावस्थावतोऽपि भेदान्नित्यत्वक्षतिः।
यदि कहो कि; ईश्वर तीन जगतकी रचना करने रूप खभावका धारक नहीं है, तो वह ईश्वर कदाचित् भी जगतका निर्माण नहीं
இவரும் இகம் தம் இ. 2. இம்