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________________ यादाटमा भेद है। भावार्थ-अनुभव स्मरणके पहले होता है, इस कारण अनुभवकी अवस्था दूसरी है और स्मरण अनुभवके पीछे होता राजै.सा. है; अत स्मरणकी अवस्था दूसरी है । और अवस्थाका भेद होनेसे अवसाओके धारक आत्माका भी भेद हुआ; जिससे आत्माके एकरूपताका नाश हुआ इस कारण आत्माके कथचित् अनित्यपना जो युक्तिने आता हैउसको तुम किससे दूर कर सकते हो। अर्थात् आत्माके कथंचित् अनित्यत्वका खंडन तुम नहीं कर सकते हो। अथात्मनः शरीरपरिमाणत्वे मूर्तत्वानुपशाच्छरीरेऽनुप्रवेशो न स्यान्मूः मूर्तस्यानुप्रवेशविरोधात् ततो निरात्मकमेवाखिलं शरीरं प्रामोतीति चेत् किमिदं मूर्तत्वं नाम । असर्वगतद्रव्यपरिमाणत्वं रूपादिमत्त्वं वा । तत्र नाद्यः पक्षो दोपाय । संमतत्वात् । द्वितीयस्त्वयुक्तः। नहि यदसर्वगतं तन्नियमेन रूपादिमदित्यविनाभावोऽस्ति । मनसोऽसर्वगतत्वे ऽपि भवन्मते तदसंभवात् । आकाशकालदिगात्मना सर्वगतत्वं परममहत्त्वं सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं चेत्युक्तत्वान्मनसो वैधात्सर्वगतत्वप्रतिपेधनात् । अतो नात्मनः शरीरेऽनुप्रवेशानुपपत्तिर्यन निरात्मकं तत्स्यात् । असर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणमूतत्वस्य मनोवत्प्रवेशाऽप्रतिवन्धकत्वात्। रूपादिमत्त्वलक्षणमूर्तत्वोपेतस्यापि जलादेर्वालुकादावनुप्रवेशो न निषिध्यते । आत्मनस्तु तद्रहितस्यापि तत्रासौ प्रतिपिध्यत इति महच्चित्रम् । । यदि कहो कि; आत्माको शरीरपरिमाण मानने पर आत्मा मूर्त हो जावेगा; इस कारण उस आत्माका शरीरमें प्रवेश न होगा। क्योंकि, मूर्तमें मूर्तके प्रवेशका विरोध है अर्थात् मूर्त गरीरमें मूर्त आत्माका प्रवेश होना विरुद्ध है। और जब मूर्त शरीरमें मूर्त आत्माका प्रवेश न होगा तो संसारके यावन्मात्र ( सबके सब) शरीर आत्मासे शून्य (रहित) ही हो जावंगे। तो हम (जैनी) प्रश्न करते है कि, यह मूर्तपना क्या है ? अर्थात् तुम (वैशेषिको ) ने मूर्तका क्या लक्षण माना है । असर्वगत द्रव्यपरिमाणपना जो है, वह मूर्त है, अथवा जो रूपादिमान् (रूप आदिका धारक ) पना है; वह मूर्त है । भावार्थअसर्वगत ( अव्यापक) द्रव्यका जो अल्पपरिमाण है; उस अल्पपरिमाणके धारक द्रव्यको मूर्त करते हो; अथवा रूप आदिको सर्वमूत. सह सयोग.। न तु सर्वत्र । तेषां नि क्रियत्वात् । २ इयत्ताऽनवरिटनपरिमाणयोगिय परममहत्यम् । ३ सर्वसयोगिसमानदेशव-LGI ॥६६॥ सर्वेपांमूर्तदम्याणाम् । आकाश समानो देश एक आधार इत्यर्थः । एव दिगादिष्वपि व्याख्येयम् । यद्यपि आकाशादिकं सर्वसयोगिनामाधारोन भवति । इहप्रत्ययविषयत्वेनावस्थानात् । तथापि सर्वसयोगिसयोगाधारभूतत्वादुपचारेण सर्वस योगिनामप्याधार उच्यते ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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