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द्वयसंयोगसे घटकी उत्पत्ति मानते हो सो प्रत्यक्षप्रमाणसे वाधित है। क्योंकि; जब मृत्तिकाके पिण्डके प्रति कुंभकार तथा चाक आदि अपना २ व्यापार ( क्रिया ) करते है, तब उस मृत्तिकाके पिडसे दो कपालोकी उत्पत्ति होनेके पहले ही अर्थात् कपालोंके बने विना ही पृथुवुघ्नोदरादि आकारका धारक घट बन जाता है; यह सवको प्रत्यक्षसे प्रतीति होती है । और पूर्व ( पहले ) के आकारका त्याग करके जो उत्तर ( आगें ) के आकाररूप परिणामका हो जाना है। वही द्रव्यके कार्यत्व है अर्थात् पूर्व आकारको
छोडकर उत्तर आकारको धारण करनेसे ही द्रव्य कार्यरूप है । और उस कार्यपनेका बाह्यके समान अंतरंगमें भी अनुभव किया ही IN जाता है अर्थात् जैसे बाह्यमें कटकआदि आकारोंको छोड़कर कुंडल आदि आकारोंरूप होनेवाले सुवर्ण आदि द्रव्योंमें कार्यरूपता
देखते है; उसी प्रकार पूर्व आकारको छोड़कर उत्तर आकारको धारण करते हुए आत्माओंमें भी कार्यरूपताका अनुभव होता ही | का है। इसकारण आत्मा भी कथंचित् कार्यरूप है । और पट आदिमें अपने अवयवोंके संयोगपूर्वक कार्यत्व देखकर सब द्रव्योंमें वैसा
मानना ठीक नहीं है अर्थात् तंतुआदिरूप अवयवोंके संयोगसे पट आदि कार्य होते है। यह देख कर घटआदि कार्य भी अवय-2 वोंके संयोगपूर्वक होते है, ऐसा मान लेना उचित नहीं है । क्योंकि; यदि ऐसा मानोंगे तो काप्ट ( लकड़ी) में लोहसे खुदनेकी ||Sy|| योग्यता देखकर वज्र ( हीरे ) में भी वैसा होना ( लोहसे खुदनेकी योग्यताका होना ) स्वीकार करना पड़ेगा; जो कि, तुमको अनिष्ट है। और प्रमाणसे बाधा दोनों स्थानों में ही समान है। भावार्थ-यदि तुम कहो कि-वज्र लोहसे नहीं खुदता है, यह प्रत्यक्षमें देखते है । इस कारण वज्रमें लोहसे खुदनकी योग्यता कैसे मान सकते है । क्योंकि; प्रत्यक्षप्रमाणसे बाधा आती है; तो
कपालके संयोगसे घटका उत्पन्न होना भी प्रत्यक्षसे विरुद्ध है; इस कारण कार्य अपने समानजातीय अवयवोंसे उत्पन्न होता है; V|| इस नियमका घटरूप कार्यमें व्यभिचार होता है, अतः उक्तनियमसे आत्माके समानजातीय अवयवोंसे उत्पन्न होनेकी योग्यता
बताकर जो तुमने हमारे मतमें अनिष्टकी आपत्तिरूप दोष दिया है; वह नहीं हो सकता है । और आत्मामें पूर्व आकारके त्यागसे उत्तर आकारके खीकाररूप कार्यत्वके मानने पर भी जो आत्माके अनित्यताका अनुषंग ( प्राप्ति ) होता है; उससे प्रतिसंधानके |अभावका अनुषंग नहीं होता है अर्थात् आत्माके अनित्य होनेपर प्रतिसधान न होगा ऐसा नहीं है । क्योंकि; आत्माके कथंचित् || अनित्यता होने पर ही यह प्रतिसंधान सिद्ध हो सकता है। कारण कि-प्रतिसंधान जिसको मैने देखा है; उसको मै सरण | N] ( याद ) करता हू' इत्यादि रूपका धारक है । और यह रूप आत्माके सर्वथा नित्यपनेमें कैसे सिद्ध होवे ? । क्योंकि; अवस्थाका
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