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________________ क्रिया सर्वत्र क्रमसे ही होती दीखती है । ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं दीखता है जो अपनेसे उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण क्रियाओंको एकसाथ ही पैदा करदे । अथवा एकसाथ ही संपूर्ण क्रियाओंको करदेता हो तो भी आदिके समयमें ही संपूर्ण क्रिया होजानेसे द्वितीयादि समयोंमें निष्क्रिय मानना पड़ेगा इसलिये निवारण करते करते भी अनित्यता आपड़ती है । क्योंकि; एकतरहके खभाववाला पदार्थ उसीको कहसकते है जिसमें करनेरूप न करनेरूप आदिक खभावोमेंसे कोई एक ही स्वभाव सदा शाश्वता रहता IN हो । जिस पदार्थमें कभी तो क्रिया करनेरूप खभाव पाया जाता है और कभी नहीं करनेरूप, वह कूटस्थ नित्य कैसे होसकता है | खभावोंका परिवर्तन होते रहनेको ही अनित्यता कहते है। तदेवमेकान्तद्वयेऽपि ये हेतवस्ते युक्तिसाम्याद्विरुद्धं न व्यभिचरन्तीत्यविचारितरमणीयतया मुग्धजनस्य ध्याभय पोलादयन्तीति विरुद्धा व्यभिचारिणोऽनैकान्तिका इति । अत्र च नित्यानित्यैकान्तपक्षप्रतिक्षेप एवोक्तः। पलक्षणलाध सामान्यविशेषाद्यकान्तवादा अपि मिथस्तल्यदोपतया विरुद्धा व्यभिचारिण एव हेतूनुपस्पृशन्तीति परिणावनीयम्। IN पक्ष गायनमा निराशनित्य दोनों ही पक्षोंके माननेमें जो एक दूसरेके ऊपर दोपारोपण करके दोनों पक्षोंको सदोष ठहराने में अनेक व विसाल नागंपूर्ण मौकी सुस्कियां दोनों ही तरफ घटनेसे समान है। और दोनो तरफ समान होने के कारण दोनों ही पक्षोमें| जयगरी विशेष भावामागे संगणन विकता तथा जबतक पूर्ण विचार न किया जाय तभीतक रमणीय मालम पड़नेसे भोले | मायाको नाकर भगा दी गलिगे ये है भनेकान्निक भी है । जिम हेतुके सुननेसे पक्ष साध्यमें सच्चे झूठेपनेका साभाोने लगतानगीन ग दपर निशानित्य एकान्त पक्षका खण्डन तो नाम लेकर किया है परंतु | Vाग लेना विजिगी कार का मामान्य विशेषादि तीनों एकान्तवाद भी एक दगरेके साथ विनार ] मोगरगामविकान्तवाक भी हेतु नियमसे विरुद्ध है सो निनार करलेना चाहिये। यायायते--परम्परेत्यादिन काटकर शुद्रशत्रुग्वेकान्तबादिपु परमारगिए मत्म, पर-ITH यान्तीगीला: गन्दोगमन्दवादिति परस्परभ्यंमिनस्ने', हे जिन! ते तव शामना चल्लान् मन्ते विनामगुपयान्तीलगवंतीला गुन्धोपमन्दतदिति परस साझादप्रन्पणनिपुणं द्वादशालीमा गनिमाकानां कण्टकानां व भिमाकानां कण्टकानां स्ववमुन्दियावेनवाभावादायमपग S सीप गिरणानित्य जिम हेनुके मन रमणीय मालूम पडने व्याख्यागते-पगारेलावनारोक भीतीनों एकान्तबाद भी नाम लेकर किया है परंतु ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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