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________________ राजै.शा. स्थाद्वादम. में च वाचकभभिधायक शब्दरूपं तदप्यवश्यं निश्चितं द्वयात्मकं सामान्यविशेषोभयात्मकत्वादेकानेकात्मकमित्यर्थः। (उभयत्र वाच्यलिङ्गत्वेऽप्यव्यक्तत्वान्नपुंसकत्वम् । अवश्यमितिपदं वाच्यवाचकयोरुभयोरप्येकानेकात्मकत्वं निश्चि॥१०७॥ न्वत्तदेकान्तं व्यवच्छिनत्ति)।अत उपदर्शितप्रकारादन्यथा सामान्यविशेषकान्तरूपेण प्रकारेण वाचकवाच्यक्तृप्तौ वाच्यवाचकभावकल्पनायामतावकानामत्वदीयानामन्ययूथ्यानां प्रतिभाप्रमादः प्रज्ञास्खलितमित्यक्षरार्थः। (अत्र चाल्पस्वरत्वेन वाच्यपदस्य प्राग्निपाते प्राप्तेऽपि यदादौ वाचकग्रहणं तत्प्रायोऽर्थप्रतिपादनस्य शब्दाधीनत्वेन वाचकस्याय॑त्वज्ञापनार्थम् ) तथा च शाब्दिकाः। "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते।१।" इति । व्याख्यार्थः-"वाच्यम" कथन करने योग्य चेतन तथा अचेतन पदार्थ “एकात्मकम् अपि" सामान्यरूपतासे एक खरूप है, तौभी "अनेकम्" व्यक्तियोंके भेदसे अनेक रूप है। [ 'एकात्मकमेव' यहाँपर जो एवकार है; वह अपिके अर्थमें है। ] अथवा मूलमें अर्थात् “अनेकमेकात्मकमेव" यहांपर अनेक और एक ये दोनों शब्द परस्पर मिले हुए है। इस लिये वाच्य अनेक है, तौभी एकरूप हैं; ऐसा व्याख्यान किया जावे तो उसमें भी कोई दोष नही है । और " वाचकम् " पदार्थों का | कथन करनेवाला शब्दरूप वाचक "अपि" भी "अवश्यम्" निश्चय करके "द्वयात्मकम्" सामान्य तथा विशेष; इन दोनों खरूपोंका धारक होनेसे एक और अनेकरूप है। [ वाच्य और वाचक ये दोनों शळ यद्यपि वाच्यलिङ्गके धारक हैं तथापि अब्यक्ततासे यहापर नपुंसकलिङ्गका प्रयोग किया गया है । और मूलमें जो अवश्य यह पद दिया गया है। वह वाच्य और वाचक इन दोनोमें ही एक तथा अनेकपनेका निश्चय कराता हुआ वाच्य और वाचकके उस एक तथा अनेकपनेके एकातको दूर करता है । ] “अतः" इस ऊपर दिखाये हुए प्रकारसे “ अन्यथा" सामान्य और विशेषके एकांतरूप प्रकारसे “वाचकवाच्यक्लप्तौ" वाचक और वाच्यभावकी कल्पना करनेमें "अतावकानाम्" हे जिनेंद्र! आपसे सम्बध न रखनेवालोंके अर्थात् अन्य मतावलम्बियोंके "प्रतिभाप्रमादः" बुद्धिका नाश है, इस प्रकार अक्षरोंका अर्थ है। "वाचकवाच्यक्लप्तौ" यहांपर यद्यपि अल्पखरपनेसे वाच्यपदका पूर्वनिपात प्राप्त होता था तौभी जो पहिले वाच्यका ग्रहण न करके वाचकका ग्रहण किया गया है, वह इस बातको विदित करनेके लिये है कि, प्रायः अर्थका प्रतिपादन करना शब्दके अधीन है, इसलिये वाचक अर्थात् ॥१०७॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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