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आदिमें कार्यपना देखनेसे प्रमेयत्वहेतुके समान कार्यत्वहेतु भी साधारणानैकान्तिकनामक जो हेतुदोष है, उससे दुष्ट होता है।
भावार्थ-जैसे, ' पर्वत अग्निका धारक है, प्रमेय ( जाननेयोग्य ) होनेसे ' इस प्रयोगमें प्रमेयत्वहेतु साधारणानैकान्तिक है अर्थात् || II अग्निरूपसाध्यका धारक जो पर्वत है, उसमें भी रहता है और उस पर्वतसे भिन्न जो जलाशय आदि है उनमें भी रहता है। इसी
प्रकार ईश्वरने जिन पदार्थोंको अपने शरीरद्वारा रचे उनमें तो कार्यत्वहेतु रहा ही । और जिन घास वृक्ष आदिको ईश्वरने अपने N||शरीरसे नहीं रचे है, उनमें भी रह गया, इस कारण कार्यत्वहेतु साधारणानैकान्तिकदोषका धारक होगया । । द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणमाहोस्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम् । प्रथमप्रकारः
कोशपानप्रत्यायनीयः। तत्सिद्धौ प्रमाणाऽभावात् , इतेरतराश्रयदोषापत्तेश्च । सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्याहIN यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम् । तत्सिद्धौ च माहात्म्यविशेषसिद्धिरिति ।
और दूसरा विकल्प जो ईश्वरके पिशाच आदिके समान अदृश्य ( देखनेमें न आनेवाले ) शरीरका धारकपना है, उसमें उस ईश्वरका माहात्म्यविशेष ( एकप्रकारका प्रभाव ) कारण है ? अथवा हमारा तुम्हारा मन्दभाग्य कारण है अर्थात् ईश्वरका शरीर ईश्वरके माहात्म्यसे हमको नहीं दीखता है ? वा हमारे मन्दभाग्यसे ? यदि कहो कि, ईश्वरके माहात्म्यसे ईश्वरका शरीर नही दीखता l है, तो यह कहना एकप्रकारकी शपथ ( सौगन ) खाकर विश्वास कराने योग्य है अर्थात् मिथ्या है । क्योंकि, ईश्वरके अदृश्य शरीरको सिद्धकरनेमें कोई भी प्रमाण नहीं है । और जब ईश्वरके माहात्म्यविशेष सिद्ध होजावे, तब तो ईश्वरके अदृश्यशरीरका धारकपना विश्वासकरने योग्य होवे तथा पहिले जब ईश्वरके अदृश्यशरीरता सिद्ध होचुके तब उसके माहात्म्यविशेषकी सिद्धि होवे, इसकारण अन्योऽन्याश्रय दोषकी प्राप्ति होती है । भावार्थ-जहां दो पदार्थों में परस्पर एककी सिद्धिके विना दूसरेकी सिद्धी न || हो वहां अन्योऽन्याश्रय दोष होता है, इसलिये यहां भी माहात्म्यविशेषके विना अदृश्यशरीरता और अदृश्यशरीरताके विना माहाम्यविशेषकी सिद्धी न होनेसे अन्योऽन्याश्रयदोष आया ।
द्वैतीयीकस्तु प्रकारो न संचरत्येव विचारगोचरे । संशयानिवृत्तेः । किं तस्याऽसत्त्वाददृश्यशरीरत्वं वान्ध्ये-II यादिवत्, किंवास्मदाद्यदृष्टवैगुण्यात्पिशाचादिवदिति निश्चयाऽभावात् । अशरीरश्चेत्तदा दृष्टान्तदान्तिकयो