________________
रा.जै.शा.
स्थाद्वादम.
॥२१३॥
जा भिन्न भिन्न रहनेपर विरोधी हैं तो सवोंको मिलादेनेपर भी विरोध कैसे मिट सकता है ? उत्तर-जिस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए वादियोंको यदि कोई मध्यस्थ युक्तिपूर्वक निर्णय करनेवाला मिलजाता है तो वे विवाद छोड़कर शांत होजाते है उसी प्रकार नय भी परस्परमें शत्रुता धारण करते है परंतु जब सर्वज्ञ देवका शासन पाकर स्यात्शब्दके मिल जानेसे परस्परका विरोधभाव छोड़कर शान्त होजाते है तब वे ही नय परस्परमें अत्यंत मैत्रीभाव धारणकरके ठहरजाते है। | एवं च सर्वनयात्मकत्वे भगवत्समयस्य सर्वदर्शनमयत्वमविरुद्धमेव नयरूपत्वाद्दर्शनानाम् । न च वाच्यं तर्हि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यत इति; समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तास्वनुपलम्भात् । तथा च वक्तवचनयोरक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः "उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान्प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः"।
इस प्रकार हे भगवन् ! आपका दर्शन सर्व नयखरूप होनेसे संपूर्ण दर्शनोसे अविरुद्ध है। क्योंकि; एक एक नयखरूप ही संपूर्ण ) दर्शन हैं। ऐसा होनेसे ऐसी शंका होना सहज है कि यदि भगवत्का दर्शन संपूर्ण दर्शनखरूप है तो वह संपूर्ण भिन्न भिन्न दर्शनोमें क्यों - पूनही दीखता? परंतु यह शंका ठीक नहीं। क्योंकि संपूर्ण नदियोका समूह ही समुद्र है परंतु भिन्न भिन्न वहती हुई नदियोंमें वह Mo नही दीखता है । बोलनेवालेमें तथा उसके वचनोंमें परस्पर अभेदभाव मानकर श्रीसिद्धसेन दिवाकर भी ऐसा ही कहते है कि 4 "यद्यपि जिस प्रकार संपूर्ण नदिया समुद्रमें मिलती है उसी प्रकार संपूर्ण दर्शन आपके दर्शनमें तो मिलते है परंतु तो भी जिस " प्रकार भिन्न भिन्न रहनेवाली नदियोंमें समुद्र नहीं दीखता उसी प्रकार आप का दर्शन भी उन भिन्न भिन्न दर्शनोंमें नहीं दीखता। ___ अन्ये त्वेवं व्याचक्षते 'यथा अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात्परे प्रवादा मत्सरिणस्तथा तव समयः सर्वनयान्मध्यस्थतयाऽङ्गीकुर्वाणो न मत्सरी। यतः कथंभूतः? पक्षपाती। पक्षमेकपक्षाभिनिवेशं पातयति तिरस्करोतीति पक्षपाती रागस्य जीवनाशं नष्टत्वात् ।' अत्र च व्याख्याने मत्सरीति विधेयपदं, पूर्वस्मिंश्च पक्षपातीति विशेपः। अत्र च क्लिष्टाऽक्लिष्टव्याख्यानविवेको विवेकिभिः स्वयं कार्यः । इति काव्यार्थः। ___ कोई इस प्रकार भी इस श्लोकका अर्थ करते है कि 'जिस प्रकार अन्य वादियोंके मतोंमें पक्ष प्रतिपक्षका दुराग्रह होनेसे परस्पर मत्सरभाव रहता है उस प्रकार आपका मत सर्वमतखरूप होनेसे मध्यस्थ होजानेके कारण मत्सरभाववाला नहीं है। क्योंकि आपका
॥२१॥