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________________ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं” इति वचनात् । अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यप्रपञ्चः समयः तेषां च भगवता साक्षान्मातृकापदरूपतयाऽभिधानात् । तथा चार्षम् “उप्पण्णे इवा विगमे इवा धुवे इवा" इत्यदोषः।। हे भगवन् ! सूत्रोंकी रचना करनेका कर्ता यदि देखाजाय तो गणधरदेव ही कर्ता है जो आपके पास रहते है और आपकर उपदेशे हए अर्थको समझसकते है। परंतु उन सूत्रोमें जिस अर्थका वर्णन है वह अर्थ आपने ही अपनी दिव्य ध्वनिद्वारा प्रकाशित किया था इसलिये यथार्थमें उसका मूल कर्ता तलासाजाय तो आप ही हैं। इस प्रकार आपके साथ समयका वाच्यवाचकभाव संबध मानना अनुचित नहीं है। ऐसा कहा भी है कि "अर्थका प्रतिबोध तो अर्हत् केवली ही कराते है किंतु सूत्रोंकी रचना अपनी निपुण मतिसे गणधरदेव करते है" । अथवा उत्पाद व्यय ध्रौव्यके प्रपंचको ही समय कहसकते है। और उत्पाद व्यय ध्रौव्यका | खरूप भगवानने स्वयं अपने मुखसे अक्षररूप कहा ही है । आर्ष वाक्य भी ऐसा मिलता है कि "उत्पन्न भी होता है विनष्ट भी| का होता है तथा स्थिर भी रहता है"। इसलिये समयका भगवान् केवलीके साथ वाच्यवाचकरूप सबंध कहने में कुछ दोष नहीं है।। | मत्सरित्वाऽभावमेव विशेषणद्वारेण समर्थयति 'नयानशेषानविशेपमिच्छन्' इति । अशेषान् समस्तान् नयान् नगमादीन् अविशेष निर्विशेष यथा भवत्येवमिच्छन्नाकाङ्क्षन् सर्वनयात्मकत्वादनेकान्तवादस्या यथा विशकलितानां मुक्तामणीनामेकसूत्राऽनुस्यूतानां हारव्यपदेश एवं पृथगभिसन्धीनां नयानां स्याद्वादलक्षणैकसूत्रप्रोतानां श्रुता-19 ख्यप्रमाणव्यपदेश इति । ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता ? उच्यते । यथा हि समीचीनं मध्यस्थ न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्परं विवदमाना अपि वादिनो विवादाद्विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सार्वज्ञं शासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः परस्परमत्यन्तसुहृद्रूपतयाऽवतिष्ठन्ते। 'नयानशेषानविशेषमिच्छन्' इस वचनसे भगवत्की प्रशंसा करते हुए इसी वचनसे ऐसा दिखाते है कि आपमें मत्सरता नही है। संपूर्ण नैगमादि नयोंको केवल सामान्य दृष्टिसे आप चाहते हैं। क्योंकि आपके वचन अनेकांतरूप हैं और अनेकांत संपूर्ण नयों के समूहको कहते है । जिस प्रकार विखरे हुए मोतियोंको एक सूतमें पिरोदेनेसे हार बनजाता है उसी प्रकार भिन्न भिन्न पड़े हुए नयरूप मोतियोंको स्याद्वादरूपी एक सूतमें पिरोदेनेसे उसकी 'श्रुतप्रमाण' संज्ञा होजाती है। शंका-यदि प्रत्येक नया
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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