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________________ स्याद्वादमं. ॥२१४॥ व्यापीका जो विभुपना या व्यापीका जो कर्तव्य हो सो भी वैभव कहाता है। क्योंकि, विभु शब्दका प्रचलित अर्थ व्यापी होता है । वचनोंका जो वैभव है उसको वाग्वैभव कहते है । वाग्वैभव शब्दका अर्थ वचनरूप संपत्तिकी अधिकता होता है । जब वैभव शब्दका अर्थ विभुका विभुपना करते हैं और विभु शब्दका अर्थ व्यापक मानते है तब वाग्वैभव शब्दका अर्थ 'संपूर्ण नयवचनोमें व्यापकपन ' ऐसा होता है । इसका वाक्यार्थ यों है कि आपका संपूर्ण वचनवैभव विचारनेकेलिये यदि हम आशा करै । तो समझना चाहिये कि समुद्रको तरना चाहते है इत्यादि । हे महनीयमुख्य ! | महनीयाः पूज्याः पञ्च परमेष्ठिनः । तेषु मुख्यः प्रधानभूतः आद्यत्वात् । तस्य संवोधनम् । ननु सिद्धेभ्यो हीनगुणत्वादर्हतां कथं वागतिशयशालिनामपि तेषां मुख्यत्वम् ? न च हीनगुणत्वमसिद्धं प्रव्रज्याऽवसरे सिद्धेभ्यस्तेषां नमस्कार करणश्रवणात् "काऊण णमुक्कारं सिद्धाणमभिग्गहंतु सो गिण्हे” इति श्रुतकेवलिवचनात् । मैवम् अर्हदुपदेशेनैव सिद्धानामपि परिज्ञानात् । तथा चार्षम् "अरहन्तुवएसेणं सिद्धा णज्झति तेण अरिहाई” इति । ततः सिद्धं भगवत एव मुख्यत्वम् । महनीय पूज्यको कहते है । सो पाचो ही पैरमेष्ठी पूज्य है परंतु उन पांचो में सबसे प्रथमके होनेसे आपको उन सर्वोसे प्रधान मानकर हे महनीयमुख्य ऐसा संबोधन कहा है। शंका- यद्यपि अर्हन्तो में उपदेशका माहात्म्य विद्यमान है परंतु सिद्धोंसे तो भी गुणोंकी अपेक्षा हीन ही है इसलिये सवोंमें मुख्य कैसे होसकते है' दीक्षाके समय वे सिद्धों को नमस्कार करते है इसलिये सिद्धोंकी अपेक्षा गुणोंमें हीनता तो प्रगट ही है। ऐसा श्रुतकेवलियोंका वचन भी मिलता है कि “सिद्धोंको नमस्कार करके वे दीक्षा ग्रहण करते है ।" उत्तर - अर्हत्केवलीके उपदेश से ही सिद्धों का परिचय होता है। ऋषियोंने ऐसा कहा भी है कि "अर्हत् के उपदेशसे ही सिद्ध जान पड़ते हैं इसलिये अर्हन्त भगवान् ही सबसे मुख्य है" । इस प्रकार अर्हन् ही सबकी अपेक्षा मुख्य सिद्ध हुए । यदि तव वाग्वैभवं निखिलं विवेक्तुमाशास्महे ततः किमित्याह लमेत्यादि । तदा इत्यध्याहार्यम् । तदा १ यह वाक्यखद सबधकी योजना के लिये ऊपरसे लिखा है। २ अर्हन्- जिन्होंने चार घाति कर्म नष्ट करके फिर केवल प्रत्यक्षज्ञान प्रगट किया हो । सिद्ध- अष्टकर्मरहित । आचार्य दीक्षा के तथा सबके स्वामी । उपाध्याय जो पढ़ें पढावें । साधु-सामान्य मुनिजन । इन्ही पाचोको पचपरमेष्ठी कहते हैं । ३ श्रुतकी जहापर अवधि है वहातक श्रुतको जाननेवाले साधु श्रुतकेचली कहाते हैं । रा. जै.शा. ॥२१४ ॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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