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पदार्थकी स्थिति क्षणमात्रसे अधिक है ही नहीं। इसलिये ज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो? क्योंकि; कारणका तो नाश होचुका है। और जिससे ज्ञान उत्पन्न होता है उसके नाश होनेपर ज्ञान निर्विषय रहजाता है। क्योंकि तुम्हारे (बौद्धोंके) मतमें ज्ञानका कारण ही ज्ञानका विषय मानागया है । और निर्विषय ज्ञान आकाशमें दीखते हुए बालोके ज्ञानके समान अप्रमाण ही होता है । और उस ज्ञानके साथवाले क्षणमें उत्पन्न होनेवाला पदार्थ उस ज्ञानका विषय हो नही सकता है । क्योंकि वह उस ज्ञानका कारण ही नहीं है। (बौद्धमतमें कारणरूप पदार्थ ही ज्ञानका विषय मानागया है)। इसलिये मूलग्रन्थकार कहते है कि "न तुल्यकालः" इत्यादि । अर्थात् ज्ञान और पदार्थमें फल ( कार्य ) और हेतुपना अर्थात् कार्यकारणपना समान कालमें नहीं होसकता है । क्योंकि; ज्ञानके साथ साथ उत्पन्न होनेवाला पदार्थ उस ज्ञानको उत्पन्न नही करता है । सो भी क्योंकि; एक साथ उत्पन्न होनेवाले दो पदार्थों में | ( गायके दोनो सींगोके समान ) एकदूसरेका कार्यकारणपना संभव नहीं है । यदि कहा जाय कि उस ज्ञानसे पहिले उत्पन्न हुआ
से उत्पन्न करदेगा सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि "हेतौ विलीने न फलस्य भावः " ऐसा पहिले कहचुके है। भावार्थ-हेतुका अर्थात् जो पदार्थ ज्ञानका कारण माना जाय उसका निरन्वय नाश होनेपर उस नष्ट हुए पदार्थसे फलकी (ज्ञानरूप कार्यकी) उत्पत्ति नहीं होसकती है किंतु उस ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले पदार्थके नष्ट होजानेपर विनाकारण ही होगी।। | जनकस्यैव च ग्राह्यत्वे इन्द्रियाणामपि ग्राह्यत्वापत्तिः, तेषामपि ज्ञानजनकत्वात् । न चाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामथार्थस्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टं; मृगतृष्णादौ जलाभावेपि जलज्ञानोत्पादादऽन्यथा तत्प्रवृत्तेरसंभवात् । भ्रान्तं तज्ज्ञानमिति ।
चेन्ननु भ्रान्ताभ्रान्तविचारः स्थिरीभूय क्रियतां त्वया । सांप्रतं प्रतिपद्यस्व तावदनर्थजमपि ज्ञानम् । अन्वयेनार्थ-|| स्य ज्ञानहेतुत्वं दृष्टमेवेति चेन्न हि तद्भावे भावलक्षणोऽन्वय एव हेतुफलभावनिश्चयनिमित्तमपि तु तदभावेऽभावलक्षणो व्यतिरेकोपि । स चोक्तयुक्त्या नास्त्येव । | और उत्पन्न करनेवाले पदार्थको ही यदि प्रत्येक ज्ञान जान सकता हो तो जिस इंद्रियसे उत्पन्न होता है उसको भी क्यों न जाने
क्योंकि; वह इंद्रिय भी उस ज्ञानको उत्पन्न करनेवालोमेंसे एक है । दूसरा दोष यह है कि जहां ज्ञान हो वहां उसको उपजाने । कावाला नियसे हो तथा जहां पदार्थ न होवहां ज्ञान भी न उपजता हो ऐसा अन्वयव्यतिरेकरूप नियम भी ज्ञानके प्रति पदार्थमें नहीं
है। क्योंकि, ऊसर भूमिमें मरीचिका दीखनेपर उसमें जल समझकर प्रवृत्ति होनेलगती है इसलिये वहां जलज्ञान हुआ तो नि