________________
स्वाद और हम जैनी ही वेदोक्त यज्ञविधानको सुगतिका कारण नहीं मानते हैं ऐसा नहीं है किंतु तुम्हारे आप्त ( यथार्थवक्ता )
स्याद्वादम.
हे ॥ ९१ ॥
भी यज्ञविधानको सुगतिका कारण नहीं कहते हैं । सो ही व्यास महर्षिने कहा है कि- 'पूजाके करनेसे बड़ा राज्य मिलता है. अग्निकार्य ( वेदोक्त यज्ञोंके विधान ) से संपदाओंकी प्राप्ति होती है; तप पापोंसे शुद्ध ( रहित ) होनेके अर्थ है और ज्ञान तथा ध्यान ये दोनों मुक्तिके दाता हैं । १।' इस श्लोक में 'अमिकार्य' इस शब्दसे कहे जाने योग्य जो याग आदि विधान है; उसको अन्य २ उपायोंसे भी प्राप्त होने योग्य संपदाओंका ही कारण कहकर व्यासजीने अर्थतः (वस्तुतः ) वेदोक्त यज्ञविधानके सुगतिकी कारणताका खंडन कर ही दिया । और यही व्यासमहर्षि पहले दिये हुए 'ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते' इत्यादि श्लोकोंसे भावाग्निहोत्र ( भावयज्ञ ) को स्थापित कर चुके हैं ।
S
रा. जे. शा
तदेवं स्थिते तेषां वादिनां चेष्टामुपमया दूषयति । स्वपुत्रेत्यादि । परेषां भवत्प्रणीतवचनपराङ्मुखानां स्फुरितं चेष्टितं स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि निजसुतनिपातनेन राज्यप्राप्तिमनोरथसदृशम् । यथा किल कश्चिदविपश्चित्पुरुषः परुषाशयतया निजमङ्गजं व्यापाद्य राज्यश्रियं प्राप्तुमीहते । न च तस्य तत्प्राप्तावपि पुत्रघातपातककलङ्कपङ्कः क्वचिदपयाति । एवं वेदविहितहिंसया देवतादिप्रीतिसिद्धावपि हिंसासमुत्थं दुष्कृतं न खलु पराहन्येत । अत्र च लिप्साशब्दं प्रयुञ्जानः स्तुतिकारो ज्ञापयति । यथा तस्य दुराशयस्याऽसदृशतादृशदुष्कर्मनिर्मानिर्मूलितसत्कर्मणो-राज्यप्राप्तौ केवलं समीहामात्रमेव न पुनस्तत्सिद्धिः । एवं तेषां दुर्वादिनां वेदविहितां हिंसामनुतिष्ठतामपि देवतादिपरितोषणे मनोराज्यमेव । नः पुनस्तेषामुत्तमजनपूज्यत्वमिन्द्रादिदिवौकसां च तृप्तिः । प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात् । इति काव्यार्थः ॥ ११९॥
- “ इस प्रकार वेदोक्त हिंसाविधिका खंडन' हो चुकनेपरं स्तुतिके कर्त्ता आचार्य महाराज 'स्वपुत्रघातादित्यादि ' उत्तरार्धद्वारा उन मीमांसक वादियोंकी चेष्टाको उपमासे दूषित करते हैं । "परेषाम्" आप करके रचे हुए वचनोंसे परामुख अर्थात् आपकी आज्ञाको न माननेवाले उन वादियोंकी “स्फुरितम्" "चेष्टा जो है सो "स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि" अपने पुत्रको A मारकर राज्यको प्राप्त करनेके मनोरथके समान है। भावार्थ — जैसे कोई मूर्खपुरुष कठोरखभावपनेसे अपने पुत्रको मारकर राज्यलक्ष्मीकी प्राप्तिके अर्थ इच्छा करता है, और उस राज्यके मिल जानेपर भी उस पुरुषके -पुत्रके मारनेसे उत्पन्न हुआ जो पाप
..
॥९१॥