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यादाट
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कह सकते हैं। और यदि उसके भी अंश माने जाय तो वे अंश उस अवयवीसे कोई जुदी वस्तु है अथवा उस अवयवीरूप राजै. ही हैं ? यदि वे अश भी उस अवयवीसे जुदी वस्तु है तो वे अंशभी एक प्रकारके अवयवी ही हुए। क्योंकि, अवयवीके सिवाय कोईॐ
बाह्य पदार्थ है ही नहीं । इसलिये वे अंशरूप अवयवी भी प्रत्येक अपने अपने अवयवोमेंसे एक एक अवयवमें हिस्सेवार रहेंगे। # क्योंकि; अवयवीका अपने अवयवोमें रहना हिस्सेवार ही ऊपर मान चुके है । इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक अवयवके हिस्से
करनेसे कहीं ठिकाना ही नहीं रहता है । यदि अवयवीके अवयवोको अवयवरूप ही माना जाय; अवयवीसे भिन्न न माना जाय। तो वे अवयव ही नहीं है। क्योंकि, अवयव तो एक एक हिस्सेका ही नाम है । भावार्थ-यदि अवयवीमें अवयवोंको ही माना जाय तो वह स्थूल अवयवी है ऐसा व्यवहार भी कैसे हो सकता है? क्योंकि; अनेक अवयव जिसमें हो उसीको स्थूल अवयवी कह सकते है । और यथार्थमें वही स्थूल हो सकता है जिसमें छोटे छोटे अनेक अवयव मिल गये हो। जो निरंश एक है वह स्थूल अवयवी कैसे कहा जा सकता है ? इसप्रकार स्थूल अवयवीरूप अथवा परमाणुरूप कोई भी बाह्य पदार्थ सिद्ध नहीं होता है। इसलिये बाह्य कुछ है ही नहीं। किंतु जो कुछ बाह्यमें नीलपीतादिकरूप भासता है वह सब ज्ञानका परिवर्तन है। __ वाह्यार्थस्य जडत्वेन प्रतिभासायोगात् । यथोक्तं "स्वाकारबुद्धिजनका दृश्या नेन्द्रियगोचराः"। अलङ्कारकारेGणाप्युक्तं “ यदि संवेद्यते नीलं कथं वाह्यं तदुच्यते ? न चेत्संवेद्यते नीलं कथं वाह्यं तदुच्यते? "। यदि वाह्योs
ो नास्ति किंविषयस्तोयं घटपटादिप्रतिभास इति चेन्ननु निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रवर्तितो निर्विषयत्वादाकाशकेशज्ञानवत्स्वमज्ञानवद्वेति । अत एवोक्तं “ नान्योऽनुभाव्यो बुध्यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः। ॐ ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते । १। बाह्यो न विद्यते ह्यर्थों यथा वालैर्विकल्प्यते । वासनालुठितं चित्तमाभासं प्रवर्तते । २।" इति ।
यदि जो प्रतिभासता है वही बाह्य पदार्थ माना जाय तो भी वह तो जड़ है इसलिये उसका प्रतिभासित होना ही संभव नहीं है। ऐसा ही कहा है कि " दृश्यजातिवाले ज्ञानमय पदार्थ बुद्धिको पदार्थाकार उत्पन्न करते है" । अर्थात्-बाह्य ॥१३७
बौद्धोंने पदार्थ दोप्रकार माने हैं प्रथम दृश्य दूसरे विकल्प्य । दृश्य पदार्थ सर्व ज्ञानमय हैं और विकल्प्य वे हैं जो लोकोंकर बाग पदार्श- १ रूप मिथ्या कल्पित किये जाते हैं।