________________
नयोंको जीव अजीवादि तत्त्वोंका ज्ञान होनेमें असाधारण कारण माना है उन प्रमाणनोंका प्रतिपादन करनेवाले अहेन् भगवान्क या वचन असाधारण महिमाके धारक है तथा इन वचनोंसे स्याद्वादके विरोधी दुर्नयोंका मार्ग नष्ट होजाता है।
सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधाऽर्थो मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः । ___ यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थः॥ २८॥ मूलार्थ-दुर्नयके द्वारा तो ऐसा निश्चय होता है कि पदार्थ सत्रूप ही है तथा सम्यक् नयके द्वारा ऐसा निश्चय होता है कि पदार्थ सतरूप है; एवं प्रमाणके द्वारा ऐसा निश्चय होता है कि पदार्थ कथंचित् सत्रूप है। एवं सच्चे मार्गको यथार्थ देखनेवाले आपने ही सच्चे नयप्रमाणद्वारा दुर्नयका निराकरण किया है । | व्याख्या-अर्यते परिच्छिद्यत इत्यर्थः पदार्थस्त्रिधा त्रिभिः प्रकारैर्मीयेत परिच्छिद्येत । विधौ सप्तमी । कैस्त्रिभिः प्रकारैरित्याह दुनीतिनयप्रमाणैः। नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नयाःदुष्टा नीतयो
दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थः। नया नैगमाद्याः। प्रमीयते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेकान्तविशिष्टोऽनेनेति प्रमाणं स्याद्वादाकात्मकं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम् । दुनीतयश्च नयाश्च प्रमाणे च दुर्नीतिनयप्रमाणानि तैः।
व्याख्यार्थ-'ऋ' धातुका अर्थ निश्चय करना है। इसलिये जिसका निश्चय किया जासकै उसको अर्थ अथवा पदार्थ कहते है। इस पदार्थका निश्चय तीन प्रकारसे होसकता है। प्रथम तो दुर्नयसे, दूसरा सुनयसे तथा तीसरा प्रमाणसे। जिनसे वस्तुके एक एक अंशोंका निर्णय होजाता हो वे नीति या नय कहाते हैं। खोटी नीतियोंको दुर्नीति अथवा दुर्नय कहते है । सुनय अथवा समीचीन नय वे हैं जो तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमाध्यायके अंतमें नैगम, संग्रह, व्यवहारादि नाम लेकर कहे गये है। संपूर्ण धर्मविशिष्ट वस्तुका जिसके द्वारा निश्चय होता हो वह प्रमाण कहाता है। यह प्रमाणज्ञान स्याद्वादरूप होता है । इसके सामान्य भेद दो है, पहिला प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष । दुर्नीति, नय तथा प्रमाणको जब संस्कृत भाषामें एक साथ मिलाकर बोलना चाहते है तब 'दुर्नीतिनयप्रमाणानि' ऐसा बोलते हैं। सारांश यह है कि प्रमाणके द्वारा तो वस्तुका सर्वाग ज्ञान होता है किंतु नयोंके द्वारा एक एक धर्मका ही ज्ञान होता है। कुनयोंसे भी वस्तुके एक एक धर्मका ही ज्ञान होता है परंतु जो वह एक है वही जब सर्व अंशरूप |मान लिया जाता है तब उसी निश्चायक नयको कुनय कहते है।