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________________ स्याद्वादमं. ॥१२८॥ 1 जड़त्वादिक अनेक दोष आते हैं । इसलिये सर्वथा प्रमाणसे उसके फलका अभेद सिद्ध नहीं होसकता है । प्रमाण और उसके फलका सर्वथा तादात्म्य संबंध माननेसे भी प्रमाण और फलकी व्यवस्था ( विभाग ) नही होसकती है । क्योंकि, एक खरूपमें परस्पर विरुद्ध दो खभावका होना असंभव है । सर्वथा तादात्म्य माननेपर ज्ञानमें पदार्थके समानपनेका होना तो प्रमाण और उसका निश्चय होना अथवा संवेदन होना फल, ये दो भाव नहीं होसकते है; नही तो एक जलादि पदार्थमें शीत तथा उप्ण भाव होना इत्यादि अनेकप्रकार अतिव्याप्ति दोष आनेकी संभावना होने लगेगी । ननु प्रमाणस्याऽसारूप्यव्यावृत्तिः सारूप्यमनधिगतिव्यावृत्तिरधिगतिरिति व्यावृत्तिभेदादेकस्यापि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेन्नैवं; स्वभावभेदमन्तरेणाऽन्यव्यावृत्तिभेदस्याप्यनुपपत्तेः । कथं च प्रमाणस्य फलस्य चाऽप्रमाणाऽफलव्यावृत्त्याः प्रमाणफलव्यवस्थावत्प्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृत्त्याप्यप्रमाणत्वस्याऽफलत्वस्य च व्यवस्था न स्यात् ? विजातीयादिव सजातीयादपि व्यावृत्तत्वाद्वस्तुनः । तस्मात्प्रमाणात्फलं कथंचिद्भिन्नमेवैष्टव्यं साध्यसाधनभावेन प्रतीयमानत्वात् । कदाचित् बौद्ध कहै कि प्रमाणमें असमानपनेका निषेध ही सारूप्य अर्थात् समानपना है और अज्ञानके अभावका ही नाम अधिगति अथवा प्रमाणका फलरूप ज्ञान है । इस प्रकार व्यावृत्ति (निषेध) का भेद होनेसे एक तथा निरंश ज्ञानमें भी प्रमाण तथा फलकी व्यवस्था होसकती है। परंतु बौद्धका यह कथन भी उचित नहीं है । क्योंकि; यथार्थमें स्वभावभेदके विना अन्य पदार्थोंसे व्यावृत्ति करनेमें भेद किस प्रकार होसकता है और प्रमाण तथा फलकी व्यवस्था जैसे अप्रमाण तथा अफल अथवा फलाभावकी व्यावृत्तिसे होती है तैसे ही प्रमाणान्तर अर्थात् अन्य प्रमाण तथा अन्यफल ( विवक्षित प्रमाणफलके अतिरिक्त दूसरे ) की व्यावृत्तिसे (निषेधसे ) अप्रमाणता तथा फलाभावकी व्यवस्था भी क्यो न हो ' क्योंकि, जैसे विजातीयसे वस्तुकी व्यावृत्ति होती है तैसे ही सजातीय वस्तुओं में भी एकसे दूसरेकी व्यावृत्ति होसकती है । इसलिये प्रमाणसे प्रमाणके फलको कथंचित् जुदा ही मानना चाहिये । क्योंकि, यह साध्य है, यह साधन है ऐसी जो जुदी २ प्रतीति होती है वह निष्कारण नही है । 2 १ एक वस्तुमें जो गुणगुणी, स्वभावस्वभाववान्, पर्यायपर्यायी आदिक अनेक अवस्था होती हैं उन अवस्थाभोके साथ जो वस्तुका सबध हो वह तादात्म्य है । रा. जै. शा ॥ १२८॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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