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| इत्यादि । किसी वर्तमान वस्तुको देखनेसे जब पूर्वका स्मरण उठता है तभी उसके वाद प्रत्यभिज्ञान उपजता है । यहांपर बौद्ध कहता है कि " यदि हम बिना किसी संबंध के ही अन्यकर देखे हुएका अन्यको स्मरण होना मानें तो ऊपर दिखाया हुआ दोष आसकै परंतु हम तो कार्यकारणपना जिनमें पाया जाता हो उन्हीमें परस्पर एक दूसरेका स्मरण होना मानते है । जो संतान भिन्न भिन्न है उनमें परस्पर कार्यकारणपना ही नही है इसलिये उनमें एकके देखे हुएका दूसरेको स्मरण नही हो सकता है । कितु जो बुद्धिक्षण एक ही संतानमें उत्पन्न होते है उनमें पूर्वका बुद्धिक्षण तो कारण होता है और पीछे उत्पन्न हुआ कार्य होता है इसलिये उस कार्यकारणपनेके संबंधसे उन एक संतानवर्ती बुद्धिक्षणों में स्मरण होसकता है" । यह भी बौद्धका कथन ठीक नहीं है । क्योंकि; एक संतानवाले क्षणोंमें कार्यकारणरूप सबंध माननेसे भी कुछ भिन्नता मिट नही जाती है । भिन्नता तो तब न रहै जब सभी क्षण एकरूप हों । जब सभी क्षण परस्पर भिन्न हैं, क्षण क्षणमें नष्ट होते जाते है तत्र कार्यकारणरूप संबंध माननेसे भी परस्परका भेद मिट नही सकता है। और जहां कार्यकारणपना हो वहां चाहै परस्पर भेद हो तो भी | पहिलेके देखे हुएका दूसरेको स्मरण होसकता है ऐसा कोई दृष्टान्त भी नही है जिसका दोनो पक्षों में आदर होसकै ।
अथ "यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते कर्पासे रक्तता यथा" इति कर्पासे रक्तता| दृष्टान्तोऽस्तीति चेत्तदसाधीयः साधनदूषणयोरसंभवात् । तथा हि । अन्वयाद्यसंभवान्न साधनम् । न हि कार्यकारणभावो यत्र तत्र स्मृतिः कर्पासे रक्ततावदित्यन्वयः संभवति । नापि यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभाव इति व्यतिरेकोऽस्ति । असिद्धत्वाद्यनुद्भावनाच्च न दूषणम् । न हि ततोऽन्यत्वादित्यस्य हेतोः कर्पासे रक्ततावदित्यनेन कश्चिद्दोषः प्रतिपाद्यते । किं च यद्यन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावेन स्मृतेरुत्पत्तिरिष्यते तदा शिष्याचार्यादिबुद्धीनामपि कार्यकारणभावसद्भावेन स्मृत्यादिः स्यात् । अथ नायं प्रसङ्ग एकसंतानत्वे सतीति विशेषणादिति चेत्तदप्ययुक्तः भेदाऽभेदपक्षाभ्यां तस्योपक्षीणत्वात् । क्षणपरम्परातस्तस्याऽभेदे हि क्षणपरम्परैव सा । तथा च | संतान इति न किंचिदतिरिक्तमुक्तं स्यात् । भेदे त्वपारमार्थिकः पारमार्थिको वाऽसौ स्यात् ? अपारमार्थिकत्वेऽस्य तदेव दूषणमकिंचित्करत्वात् । पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात् क्षणिको वा ? क्षणिकत्वे संतानिनिर्विशेष